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________________ प्रज्ञापनासूत्रे भिनिबोधिकज्ञानीनां नैरयिकाणाम् अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्याभिनिवोधिकज्ञानी नैरयिको जघन्याभिनिवोधिकस्य ज्ञानिनो नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या चतुःस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः, पदस्थानपतितः आभिनिबोधिक ज्ञान पर्यवैस्तुल्यः श्रुतज्ञानपर्यवैः अवधिज्ञानपर्यवैः पदस्थानपतितः त्रिभिर्दर्शनैः पदस्थानपतितः, एवम् उत्कृष्टाभिनिवोधिकज्ञान्यपि, अजघजहण्णाभिणियो हियनाणीणं नेरइयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ? किस हेतु से भगवन् ! ऐसा कहा है कि जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी नारकों के अनन्त पर्याय हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! ( जहण्णाभिणिबोहियनाणी नेरइए) जधन्य अभिनियोधिकज्ञानी नारक (जहण्णा भिणिबोहियस्स नाणिस्स नेरइयस्स दव्वट्टयाए तुल्ले) जघन्य आभिनिवोधिकज्ञानी नारक से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है (पएसयाए तुल्ले) प्रदेशों की दृष्टि से तुल्य है (ओगाहणट्टयाए चउडाण. aise) अवगाहना से चतुःस्थानपतित है (ठिईए चउट्ठाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित है ( वण्णगंधर सफासपज्जवेहिं छाणवणिए) वर्ण, गंध, रस, स्पर्शपर्यायों से षट्स्थानपतित है (आभिणि बोहिय नाणपज्जवेहिं तुल्ले) आभिनियोधिकज्ञान के पर्यायों से तुल्य है (सुयनाणपज्जवेहिं, ओहि नाणपज्जवेहिं छट्टाणवडिए) श्रुतज्ञान के पर्यायों से, एवं अवधिज्ञान के पर्यायों से षट् स्थान पतित है (तिहिं दंसणेहिं छट्टाणवडिए) तीन दर्शनों से पट्ट स्थानपतित है ६२८ एवं वच्चइ - जहण्णाभिणिबोहियनाणीणं नेरइयाणं अणता पज्जवा पण्णत्ता) या હેતુથી ભગવન્ ! એવું કહ્યુ છે કે જધન્ય આભિનિષેાધિક જ્ઞાની નારકાના અનન્ત पर्याय ह्या छे ? ( गोयमा !) हे गौतम! ( जहण्णाभिणिबोहियनाणी नेरइए) धन्य मालिनिमोधि ज्ञानी ना२४ ( जहण्णाभिणिबोहियस्स नगाणिस्स नेरइयस्स दव्वट्र्याए तुल्ले ) ४धन्य मलिनियोधि ज्ञानी नारथी द्रव्यनी दृष्टिये तुझ्या छे (पसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशोनी दृष्टिसे पशु तुझ्य छे ( ओगाहणदुयाए चाणत्रडिए) भवगाडुनाथी यतुःस्थान पतित छे (टिईए चउट्ठाणवडिए) स्थितिमे श्रुतुः स्थान पतित छे (वण्णगंधर सफा सपज्जवेहिं छट्टाणवडिए) वर्षा गंध २स સ્પર્શના પર્યાયેાથી છ स्थान पतित छे (आभिणिबोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले) मालिनिञोधि ज्ञानना पर्यायोथी तुझ्य छे (सुयणाणपज्जवेहिं, ओहिनाणपज्जवेहिं छट्टाणवडिए) श्रुतज्ञानना पर्यायाथी भने अवधिज्ञानना पर्यायोथी षट्स्थान पतित छे (तिहि दंसणेहिं छट्टानव डिए) त्र दर्शनाथी छ स्थान पतित छे (एवं उक्को શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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