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________________ प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू.२७ समेदचतुरिन्द्रियजीवनिरूपणम् ३५७ पत्राः, वित्रपक्षाः, विचित्रपक्षाः, ओहाञ्जलिकाः, जलवारिकाः, गम्भीराः, नीनिकाः, तन्तवाः, अक्षिरोटाः, अक्षिवेधाः, सारङ्गाः, नू पुराः, दोलाः, भ्रमराः, भरिलयः, जरुला, तोट्टाः, वृश्चिकाः, छगणवृश्चिकाः प्रियङ्गालाः, कनकाः, गोमयकीटाः, ये चान्ये तथा प्रकाराः, सर्वे ते संमूच्छिमा नपुंसकाः । ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्च, अपर्याप्तकाश्च । एतेषां खलु एवमादिकानां चतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तापर्याप्तानां नव जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् । सैषा चतुरिन्द्रियसंसारसमापनजीवप्रज्ञापना ॥सू०२७॥ टोका-अथ चतुरिन्द्रिमसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनां प्ररूपयितुमाह-से किं कीडा (तहा पयंगे य) और पतंगा (ढंकुण) ढंकुण (कुक्कड) कुक्कड (कुक्कुह) कुक्कुह (नंदावत्ते य) और नन्द्यावर्त्त (सिंगिरड) श्रृंगिरट (किण्हपक्खा) कृष्णपक्ष (नीलपक्खा) नीलपक्ष (लोहियपक्खा) लोहितपक्ष (हालिद्दपक्खा) पीतपक्ष (सुकिल्लपक्ष) श्वेतपक्ष (चित्तपक्खा) चित्रपक्ष (विचित्तपक्खा) विचित्रपक्ष (ओहंजलिया) ओहाजलिक (जलचरिया) जलचारिक (गंभीरा) गंभीर (णीणिया) नीतिका (तंतवा) तन्तव (अच्छिरोडा) अक्षिरोट (अच्छियेहा) अक्षिवेध (सारंगा) सारंग (नेउरा) नूपुर (दोला) दोला (भमरा म्रमर (भरिली) भरिली (जरुला) जरुला (तोहा) तोह (विंछुया) विच्छू (पत्तविच्छया) पत्रवृश्चिक (छाण विच्छ्या) छाणे का विच्छू (जलविच्छुया) जल-विच्छू, (पियंगाल) प्रियंगाल (कणगा) कनक (गोमयकीडा) गोबर का कीडा, इन अन्धिक आदि चतुरिन्द्रिय जीवों को देशविशेष से और लोक से समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार जो अन्य प्राणी हैं उन्हें भी चतुरिन्द्रिय समझना चाहिए। ॥२७॥ टीकार्थ-ये सभी चौइन्द्रिय जीव संमूछिम और नपुंसक होते हैं । (किण्ह पक्खा) ० ५६ (नीलपक्खा) नीस५६ (लोहियपक्खा) alsत ५६ (हालिद्दपक्खा) पीत ५६ (सुकिल्लपक्खा) श्वेत ५६ (चित्तपक्खा) यित्र पक्ष (विचित्तपक्खा) वियित्र ५६ (ओहंजलिया) सोडiarles (जलचरिया) are-या२ि४ (गंभीरा) ला२ (णीणिया) नानि (तन्तवा) तन्तष (अच्छिरोडा) म२ि०२। (अच्छिवेहा) अक्षिवेध (सारंगा) सा२ (नेउरा) नूपुर (दोला) होता (भमर) लभरे। (भरिली) मसी (जरुला) ४३६॥ (तोट्टा) तो (विछया) पिछी (पत्तविंछुया) पत्र वृश्चि४ (छाणविच्छया) छ। वृश्चित (जलविच्छया) ६ वृश्चि४ (पिरंगाल) प्रिया (कणगा) ४४ (गोमेय कीडा) छाने। 131 ॥ सू. २७ ॥ ટીકાથ–આ આંધિક વિગેરે ચતુરિન્દ્રિ જેને દેશવિશેષ કરીને તથા શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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