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________________ ९१६ जीवाभिगमसूत्रे पुक्खरोदस्स' नवरं स्वयम्भूरमणसमुद्रजलम् अच्छम् जात्यम् पथ्यम् लघुकम् यथा पुष्करोदसमुद्रस्य । सम्प्रति ये प्रत्येकरसाः प्रकृत्युदकरसास्तांस्तान् पार्थक्येन दर्शयति- 'कइणं भंते ! समुद्दा पत्तेयरसा पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समुद्दा पत्तेगरसा पन्नत्ता, तं जहा- लवण- वरुणोदे - खीरोदे घयोदे, कइ णं भंते ! समुद्दा पगईए उदगरसेणं पन्नता ? गोयमा ! तओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पन्नत्ता ? तं जहा - कालोए पुक्खरोए सयंभूरमणे, अवसेसा समुद्दा उस्सण्णं कि 'अच्छे जच्चे पत्थे जहा पुक्खरोदस्स' वह तो पुष्करोधि के जल के जैसा स्वच्छ, जातिवंत निर्मल एवं पथ्य है० अब सूत्रकार यह प्रकट करते है कि कौन कौन समुद्र किस किस समुद्र के समान पानी वाले है और कौन २ नहीं है- 'करणं भंते! समुद्दा पत्तेगरसा पण्णत्ता' हे भदन्त ! कितने समुद्र प्रत्येक रस वाले है अर्थात् दूसरे समुद्रों के साथ जिनका पानी नहीं मिलता है ऐसे है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! चत्तारि समुद्दा पत्तेगरसा पण्णत्ता' हे गौतम! चार समुद्र प्रत्येक रस वाले कहे गये हैं- 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं'लवणे वरुणोदे खीरोदे घयोदे' लवणसमुद्र, वरुणोदसमुद्र, क्षीरोदसमुद्र, और घृतोदसमुद्र, 'कति णं भंते ! समुद्दा पगतीए उदगरसेणं ण्णत्ता' हे भदन्त ! कितने समुद्र जिनका पानी आपस में समान हैं ऐसे हैं ? 'गोयमा ! तओ समुद्दा पगतीए उद्गरसेणं पण्णत्ता' हे समुद्रनु पाएगी शेरडीना रसना स्वाह भेवु जहा पुक्खरोदस्स' येतो पुष् विधिना स અને પથ્ય છે. छे. 'णवरं' परंतु स्वयंभूरभ नथी प्रेम- 'अच्छे जच्चे पत्थे જેવું સ્વચ્છ જાતિવ ́ત નિર્મળ હવે સૂત્રકાર કયા કયા સમુદ્રો કયા કયા સમુદ્રની સરખા પાણી વાળા છે અને કાણુ કાની સરખા નથી એ બતાવે છે. 'कइ णं भंते ! समुद्दा पत्तेगरसा पण्णत्ता' डे लगवन् डेंटला समुद्रो प्रत्ये મળતું નથી. એવા રસવાળા છે? અર્થાત્ ખીજા સમુદ્રોની સાથે જેનુ પાણી छे ? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छे - 'गोयमा ! चत्तारि समुद्दा पत्तेगरसा पण्णत्ता' हे गौतम! यार समुद्री प्रत्येउ रसवाणा उडेवामां आवेला छे. ते नामो मा प्रमाणे छे. 'लवणे वरुणोदे खीरोदे घयोदें सव समुद्र, १३शोह समुद्र, क्षीरोह समुद्र भने धृतोह समुद्र 'कति णं भंते ! समुद्दा पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ता' हे भगवन् डेंटला समुद्रो नेनु पाणी परस्परमां सर होय सेवा छे ? 'गोयमा ! तओ समुद्दा पगतीए उद्गरसेणं पण्णत्ता' જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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