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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.१०२ क्षीरोदादिद्वीपसमुद्रनिरूपणम् ८२३ टीका-'खीरोदं णं समुई घयवरे णामं दीवे वट्टे वलयागार संठाणसंठिए जाव परिचिट्ठइ' घृतवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् क्षीरोदं समुद्रं संपरिक्षिप्य-संवेष्टय खलु तिष्ठति 'समचक्कवाल० नो विसमचक्कवाल०' हे भदन्त ! घृतवरः खलु द्वीपः किं समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः ? आहोस्वित्-विषमचक्रवाल संस्थानेन संस्थितो भवेत् ? चक्रवालसंस्थानस्योभयथाऽपिदर्शनात् इति प्रश्नः भगवानाह-हे गौतम ! घृतवरो हि द्वीपः समचक्रवालसंस्थाने नैव संस्थितः, न तु-विषमचक्रवालसंस्थानेन । 'संखेज विक्खंभपरि०' हे भदन्त ! घृतवरो हि द्वीपः कियत्प्रमाणकेन चक्रवालविष्कम्भेण कियता परिक्षेपेण च प्रज्ञिप्तः ? भगवान् प्राह-संख्येयानि योजनशतसरस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण एतत्प्रमाणकान्येव परिक्षेपेण । 'पएसा जाव ___'खीरोदण्णं समुदं घयवरे णामं दीवं वट्टे वलयागार संठाणसं. ठिते-इत्यादि । टीकार्थ-क्षीरसमुद्र को चारों ओर से परिवेष्टित करके घृतवर नामका द्वीप स्थित है। यह द्वीप गोल है और वलय का जैसा आकार होता है उसके जैसे गोल आकार वाला है 'समचक्कवाल० नो विसम०' यह समचक्रवाल विष्कम्भ से युक्त है विषमचक्रवाल विष्कम्भ से युक्त नहीं है चक्रवाल संस्थान सम विषम दोनों प्रकार का होता है अतः यहां ऐसा कहा गया है कि यह समचक्रवाल वाला है विषम चक्रवाल वाला नहीं है 'संखेज्ज विक्खंभ परिक्खेवेणं पदेसा जाव अट्ठो' हे भदन्त ! इसका समचक्रवाल विष्कम्भ कितना है और परिक्षेप भी कितना है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-इसका समचक्रवाल विष्कम्भ संख्यात हजार योजन है और परिधि इसकी तीन गुणा से 'खीरोदेणं समुदं धयवरे णामं दीवे व वलयागारसंठाणसंठिए' त्यात ટીકાર્થક્ષીર સમુદ્રને ચારે બાજુએ વીંટળાઈને વૃતવર નામને દ્વીપ આવેલ છે. આ દ્વીપનો આકાર ગેળ છે. અને વલયને જેવો આકાર હોય छ. तनाव। २।४।२वाणे॥ धृतव२वी५ छ. 'समचक्कवाल नो विसम चक्कवाल' ॥ धृत१२वी५ समयपाल विजयी युत छ. विषमयाथी યુક્ત નથી. ચકવાલ સંસ્થાન સમ અને વિષમ બન્ને પ્રકારનું હોય છે. તેથી અહીયાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે–આ સમચકવાલ વિષ્કભ વાળો છે. विषभयपास संस्थानवाण नथी. 'संखेज्जविक्खंभपरिक्खेवेणं पदेसा जाव अद्रो' હે ભગવન એને ચક્રવાલ વિધ્વંભ કેટલો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી એ કહ્યું કે–તેને ચક્રવાલ વિષ્ઠભ સંખ્યાત હજાર યોજન છે. અને તેની જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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