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________________ १४८४ जीवाभिगमसूत्र गौतम ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् पूर्ववत् 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइ' उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहू "भ्यधिकानि अनुत्तरोपपातिका देवा एते भवन्ति तेषां शुक्कलेश्याकत्वात् । 'अलेस्से णं भंते !०' अलेश्यः खलु भदन्त ! अलेश्य इति कियच्चिरं भवति ? भगवानाह-गौतम ! अलेश्यः-'साईए अपज्जवसिए' सादिकोऽपर्यवसितः इति । 'कण्हलेसस्स णं भंते !० अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' कृष्णले श्यस्य खलु भदन्त ! कालतः कियच्चिरमन्तरम् ? भगवानाह गौतम ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' जघन्येनान्तजीवों की कायस्थिति का काल जघन्य से 'अंतोमुहुत्त' एक अन्तमुहूर्त का कहा गया है और 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम का कहा गया है इस लेश्या वाले अनुत्तरोपपातिक देव होते हैं और इन की स्थिति इतनी होती है 'अलेस्सेणं भंते !' हे भदन्त ! अलेश्य जीव की कायस्थिति का काल कितना होता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! अलेश्य जीव की कायस्थिति का काल 'सादीए अपज्जवसिए' सादि अपर्यवसित होता है । अतः यहां पर कायस्थिति का कथन नहीं हुआ है । ___ इनका अन्तर विषयक विचार-'कण्हलेस्सस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! कृष्णलेश्या वाले जीव का काल की अपेक्षा कितना अंतर होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! ज. अंतो० उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमः 'अंतोमुहत्तं' मे४ मतभुत ना ४ामा मावेश छ. मन 'उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई' Gष्टथी से मतभुत मधि४ 33 तेत्रीस સાગરોપમને કહેવામાં આવેલ છે. આ વેશ્યાવાળા અનુપાતિક દેવ હોય છે. मन भनी स्थिति मेटसी डाय छे. 'अलेस्सेण भंते ! भगवन् ! मसेश्य જીવની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલું હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે हुगौतम ! असेश्य नी यस्थितिमा 10 'सादीए अपज्जवसिए' साहि अपयવસિત હોય છે. તેથી અહીંયાં તેમની કાયસ્થિતિનું કથન કરવામાં આવેલ નથી. तभना मत२ संबंधी थन'कण्हलेस्सस्स ण भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होई' हे गवन् ! - લેશ્યા વાળા જીવનું અંતર કાળની અપેક્ષાથી કેટલું હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रमुश्री हे छे. 3-'गोयमा! जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीस જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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