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________________ १४७२ जीवाभिगमसूत्रे ___ अथैषामन्तरम् 'अंतरं ओरालियसरीरस्स जहन्नेणं एग समयं' औदारिक शरीरिणो जघन्येनैकं समयम् स चैकः समयो द्विसामयिक्यामपान्तरालगतौ भवति, प्रथमसमये कार्मणशरीरोपेतत्वात् । 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाइ” उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूताभ्यधिकानि, उत्कृष्टो वैक्रियकाल इति भावः । 'वेउब्वियसरीरस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्त- उक्कोसेणं अणंत कालं वणस्सइकालो' वैक्रियशरीरिणोऽन्तर्मुहूर्त अन्तरं' जघन्येन सकृद्वैक्रियकरणे एतावता कालेन पुनक्रियकरणात्, उत्कर्षेणाऽनन्तं कालं वनस्पतिकालः प्रसिद्धः 'आहारगस्स सरीरिस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवर्ल्ड 'ओरालिय सरीरिस्स जहण्जेणं एगं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमभहियाई' औदारिक शरीर का अन्तर जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ साग रोपम का होता है जघन्य अन्तर द्विसमय वाली अपान्तराल गति में होता है क्योंकि प्रथम समय में जीव कार्मणशरीर से युक्त रहता है उत्कृष्ट अन्तर वैक्रिय काल के व्यवधान होने से कहा गया है वैक्रिय शरीर का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्ताधिक ३३ सागरोपम का होता है। इसके बाद पुन: जीव वैक्रिय शरीर वाला बन जाता है। वैक्रियशरीर का अन्तर-'जह० अंतो० उक्को० अणंतं कालं वणस्सइकालो' जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से वनस्पति काल प्रमाण अनन्तकाल का है । "आहारगस्स सरीरस्स जह० अंतोमु० અંતરદ્વારનું કથન– 'ओरालिय सरीरस्स जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमब्भहियाइ” मोहा२ि४ शरी२नु मत२ धन्यथी से समयनु छे. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂર્ત અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમનું હોય છે. જઘન્ય અંતર બે સમય વાળી અપાન્તરાલ ગતિમાં હોય છે. કેમ કે પ્રથમ સમયમાં જીવ કામણુશરીરથી યુક્ત રહે છે. ઉત્કૃષ્ટ અંતર વૈક્રિયકાળનું વ્યવધાન હોવાથી કહેવામાં આવેલ છે. વૈકિયશરીરને ઉત્કૃષ્ટકાળ અંતર્મુહૂર્ત અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરેપમને હોય છે. તે પછી ફરીથી જીવ વૈકિયશરીર વાળા બની જાય છે. વૈક્રિયશરીરનું અંતર'जहण्णेणं अंतोमूहुत्तं उक्कोसेणं अणंत्तं कालं वणस्सइकालो' धन्यथा એક અંતમુહૂર્તનું છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિકાલ પ્રમાણ અનંતકાળનું मंत२ छे. 'आहारगस्स सरीरस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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