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________________ ८६२ जीवाभिगमसूत्रे इति लोकप्रसिद्धः ‘णीलोभेएइ वा' नीली भेद इति वा, नीलीभेदो नीलीच्छेदः नीलखण्ड मित्यर्थः ‘णोलीगुलियाइ वा नीलीगुटिका इति वा 'सामाएति वा' श्यामाक इति वा श्यामाको नीलवर्णों धान्यविशेषः 'उच्चंतएइ वा' उच्चंतग इति वा, उच्चंतगो दन्तरागः 'वणराईइ वा वनराजी इति वा वनराजी लोकप्रसिद्धैव, 'हलहरवसणेइ वा' हलधरवसनमिति वा, हलधरो बलदेव स्तस्य वसनंवस्त्रं हलधरवसनम् , तत् खलु नील भवति सर्वदेव तथा स्वाभाव्यात् हलधरस्य नीलवस्त्रं परिधानात्, 'मोरग्गीवाइ वा' मयूरग्रीवा इति वा 'पारेवयगीवाइ वा' पारावतः-कपोत स्तस्य ग्रीवा इति वा, 'अयसिकुसुमेइ वा' अतसीकुसुममिति वा, 'अंजणकेसिगाकुसुमेइ वा' अञ्जनकेशिकाकुसुममिति वा, अञ्जनकेशिका वन भीगोडी कहते है जैसा नीला भृङ्ग पत्र होता है जैसा नीला चाप पक्षी होता है जैसा नीला उसका पंख होता है। जैसी नीला रंगका शुक-तोता होता है जैसा नीली शुककी पंख होती है जैसी नीली नीली होती है, जैसा नीला नीलीभेद होता है 'णीलोगुलियाइ वा' जैसी नीली नीली गुटिका होती है 'सामाएति' जैसा नीला श्यामाकधान्य होता है, 'उच्चतएतिवा' जैसा नीला उच्चतग-दन्तराग होता है। 'वणराई इवा' जैसी नीली वनराजि होती है 'हलहरवसणेइ वा' जैसा नीला हल. घर-वलभद्रका वसन-वस्त्र होता है 'मोरग्गीवाति वा' जैसी नीली मयूर ग्रीवा होती है 'पारेवयगीवातिवा' जैसी नीली पारावत परेवा कबूतर की ग्रीवा होती है 'अयसि कुसुमेह वा' जैसा नीला अलसीका फूल होता है 'अंजणकेसिगा कुसुमेति वा' जैसा नीला अंजन केशिकाकुसुम होता है 'अंजनकेशिका' वनस्पति विशेषका नाम है જેને ભગાડી કહે છે, ભંગપત્ર જેવુંનીલ હોય છે. ચાલપક્ષી જેવું નીલ હોય છે. જેવી નીલી તેની પાંખ હોય છે. શુક પિોપટ જેવા નીલા રંગના હોય છે. અને જેવી નીલરંગની તેની પાંખ હોય છે. જેવી નીલી લીલ હોય છે. અને २वी नारा दासन से डाय छ, 'णीलीगुलिया इवा' दासनी गुटि गोजी २वी दीदी डाय छे. 'सामाएति वा' श्यामा नामर्नु धान्य सीडंडेय छ, 'उच्छंतएतिवा' २ सायं 6यंता (हत सावधानी रंग विशेष) हाय छ. 'वणराईइवा' बनरावी नदी हाय छ, 'हलहरवसणेइवा' पर सामर्नु ख सीडंडेय छ 'मोरगीवाइवा' भारनी श्रीवा रेवी दासी हाय छ, 'पारेवय गीवा इवा' पारेवा-भूतरोनी श्रीप। वीदी हाय छे. 'अयसी कुसुमेइवा' सससाना दुस २१॥ दी। डाय छ, 'अंजण केसिगा कुसुमेइवा' भान शिना दुखवा दीदा रंगना हाय छ 'aiनशिक्षा' જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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