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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् षट्पदाः कुसुमासवलोलाः किंजल्कपानलम्पटाः मधुरं गुमगुमायमानाः-परिभ्रम. न्तस्तै:-गुञ्जन्त:- गुञ्जारवयुक्ता देशभागाः प्रदेशा येषां ते परिलीयमानमत्त षट् पदकुसुमासवलोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जदेशभागाः, तथा-'अभितरपुप्फफला' अभ्यन्तराणि-अभ्यन्तरवर्तीनि पुष्पाणि फलानि च येषां तेऽभ्यन्तरपुष्पफलाः, तथा-'बाहिरपत्तछन्ना' बहिः पत्रच्छन्नाः-व्याप्ता इति-बहिः पत्रच्छन्नाः, तथा-पत्रैश्च पुष्पैश्च अवच्छन्नपरिच्छन्ना:-अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा- 'णीरोगा' नीरोगा:-रोगरहिताः शटनवर्जिताः 'अकंटगा' अवण्टका:-कण्टकवर्जिताः, नैतेषु मध्ये बब्बूलादि कण्टकिवृक्षाः सन्तीति भावः । तथा-'साउफला' स्वादुफलाः, स्वानि फलानि येषां ते तथा-णिद्धफला' स्निग्धफलाः स्निग्धानिस्नग्धकान्तियुक्तानि फलानि येषां ते तथा- णाणाविह गुच्छगुम्ममंडवगसोहिया' प्रत्यासन्नैर्नानाविधैरनेकप्रकारकैर्गुच्छैः वृन्ताको प्रभृतिभिः गुल्मैनवमालिका दिभिः गुमायमान-गुन गुनाते रहते हैं झंकार-किया करते है अतः वृक्षों के देशभाग उनकी गुंजार से वडे अच्छे सुहावने लगते है 'अभितर पुप्फफला' इनवृक्षों के पुष्प और फल उन्हीं के भीतर छुपे रहते है, 'बाहिरपत्तच्छन्ना' बाहर में ये वृक्ष पत्रों से आच्छादित रहते है। इस तरह ये वृक्ष पत्र और पुष्पो से 'अवच्छन्न परिच्छन्ना' सदा उत्पन्न रूप से बहुत अधिक रूप से आच्छादित बने रहते है 'नीरोगा' इन वृक्षों में वनस्पतिकायिक संबंधी कोइ भी रोग नही होता है 'अकंटगा' इन वृक्षों के बीच बबूल आदि कांटों वाले वृक्ष नही होते । इनके फल बहुत ही अधिक मिष्ट स्वादवाले होते है स्निग्धस्पर्शवाले होते है। प्रत्यासत्र नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मों से-नवमालिकादि के मण्डपों से और द्राक्षा आदिक मंडपों से ये सदा सुशोभित बने ગણાટ કરતા રહે છે. ઝંકાર કર્યા કરે છે. તેથી એ વૃક્ષના પ્રદેશ ભાગે એ पक्षिसाना jniqथी भूम सुंदर सने अत्यंत सोडाम लागे छे. 'अभिंतर पुष्फफला' से वृक्षाना पुष्पा भने णे ते वृक्षानी घटामा १ छपा रहेछ. 'बाहिरपत्तच्छन्ना' महारथी से वृक्षा पानामाथी ढंये २हे छे. माशते से वृक्षापत्री भने पोथी 'अवच्छन्नपरिच्छन्ना' सहा उत्तम शत माहित ढंयेसो भन्या २९ छे. 'नीरोगा' मा वृक्षामा वनस्पतिशायि संबंधी रोड ५५ शहरात नथी. 'अकंटगा' में वृक्षामा माण विगेरे वा सो હેતા નથી. તેના ફળે ઘણાજ વધારે મીઠાશવાળા હોય છે. સ્નિગ્ધ સ્પર્શવાળા હોય છે. સમીપવતી અનેક પ્રકારના ગુરથી, ગુહમેથી, નવમાલિકા વિગેરેના મંડપથી અને દરાખ વિગેરેના મંડપથી એ વૃક્ષે સદાકાળ સુશોભિત जी० १०७ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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