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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.५१ द्वीपसमुद्रनिरूपणम् ८०१ योजनानि सा च-उपर्युपरि तनुतनू भवन्ति वर्तते तथाहि-'मूले वारस जोयणाई विखंभेणं' मुले द्वादशयोजनानि विष्कम्भेण 'मज्झे अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं' मध्येऽष्टौ योजनानि विष्कम्भेण 'उप्पि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं' उपरि. चत्वारि योजनानि विष्कम्भेण अतएव विष्कम्भमधिकृत्य 'मूले वित्थिना' मूले विस्तीर्णा 'मज्झे संखित्ता' मध्ये संक्षिप्ता त्रिभागोनत्वात् 'उप्पि तणुया' उपरितनुका, मूलापेक्षया त्रिभागमात्र विस्तारभावात् ! यद्येवं तर्हि संस्थानेन कीदृशीति साहश्येन संस्थानं दर्शयति-गोपुच्छसंठाणसंठिया' गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः, गोपुच्छस्येव संस्थानं गोपुच्छसंस्थानम् तेन संस्थिते ति गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता जवीकृतगोपुच्छाकारेति भावः । अथ तस्याः स्वरूपमाह-'सव्व वइरामई' इत्यादि, 'सव्व वइरामई' सर्व वज्रमयी, सर्वात्मना-सामस्त्येन वज्रमयी वज्र. रत्नात्मिके त्यर्थः 'अच्छा' अच्छा -आकाशस्फटिकवदति स्वच्छा 'सव्हा' इलक्ष्णाइलक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना, लक्ष्णतन्तुनिष्पनपटवत् 'लण्हा' महणा घुष्टित चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेण मूले वित्थिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया यह जगती आठ योजनकी उंची है वह उपर उपर से तनु तनु पतली होती गई है जैसे मूल में इसका विस्तार १२ योजन का है। मध्य में इसका विस्तार आठ योजन का है । और उपर२ में इसका विस्तार चार योजन का है। इस तरह मूल में विस्तीर्ण हो गई है मध्य में संकीर्ण-संकुचित-हो गई है और उपर में पतली हो गई है अत एव यह- 'गोपुच्छसंठाणसंठिता' उची हुई गाय की पूंछ का जैसा संस्थान-आकार होता हैं ! वैसे आकार वाली हो गई है अब जगती का स्वरूप कहते हैं। यह जगती 'सववइरामई' सर्वात्मना वज्ररत्नमय है, 'अच्छा, मण्हा' लण्हा, घट्टा मट्ठा. णीरया, णिम्मला, विक्खंभेण मुले विच्छिन्ना मज्ज्ञे संखित्ता उप्पि तणुया' भागती भाड જનની ઉંચાઈ વાળી છે. ઉપર ઉપરથી તનુ તનુ પાતળી થતી ગઈ છે જેમકે મૂળમાં તેને વિસ્તાર ૧૨ યોજનને છે. મધ્યમાં તેને વિસ્તાર આઠ જનને છે. અને ઉપરમાં તેનો વિસ્તાર ચાર એજનને છે. એ રીતે આ જગતી મૂળમાં વિસ્તારવાળી ફેલાયેલી છે મધ્યમાં સંકીર્ણ સંકુચિત थ ई छ. भने ५२ पातणी येत छ. तथा मा 'गोपुच्छस ठाण संठिता' यु ४२वामां आवस गायन छ। संस्थान-2413२ हाय છે તેવા આકાર વાળી કહેવામાં આવેલ છે. वे तीन। २१३५नु - ४२वामां आवे छे. या गती 'सव्व वइरामया' सारे 401 २नमय छे. 'अच्छा, सहा, लण्हा, घट्टा, महा; जी. १०१ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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