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________________ जीवाभिगमसूत्रे 'दुवालसएहिं जोयणेहि' द्वादशमि योजनैः-द्वादशयोजनपरिमितया 'अवाहाए' अवाधया 'लोयते' लोकान्तोऽलोकान्तादर्वाग्भागः 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्तः-कथितः, अयं भावा-रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वस्यां दिशि चरमपर्यन्तात् परतः अलोकादर्शक अपान्तरालं द्वादशयोजनानि, 'एवं दाहणिल्लाओ, पञ्चथिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ' एवम् दक्षिणस्यामपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालम् पश्चिमदिग्भागेऽपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालम्, एवमुत्तरदिर विभागेऽपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालम् । दिगूग्रहणमुपलक्षणम्. तेन विदिक्ष्वपि द्वादशयोजनानि अपान्तराल ज्ञातव्यमिति । शेषाणां शर्करा प्रमादितमस्तमः प्रमापर्यन्तानां पृथिवीनां सर्वासुदिक्षु विदिक्षु च कहते हैं-'गोयमा ! दुवालसएहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा नामकी पहली पृथिवी के पूर्व दिशावर्ती चरमान्त से बारह योजन के बाद लोक का अन्त-अलोक-कहा गया है तात्पर्य इसका ऐसा है कि-रत्नप्रभा पृथिवी की पूर्व दिशा में जो चरमान्त है-- उससे आगे और अलोक के पहिले बारह योजन प्रमाण अपान्तराल हैं यहीं से अलोक प्रारम्भ होता है अलोक की मर्यादा का प्रारम्भ होना ही लोक का अन्त है। एवं दाहिणिल्लाओ, पञ्चस्थिमिल्लाओ, उत्तरिल्लाओ' इसी प्रकार दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशा में भी बारह बारह योजन का अपान्तराल है। यह दिशा सम्बन्धी अपान्तराल कथन उपलक्षण रूप है इससे यह भी जानना चाहिये कि विदिशाओं में भी इतना ही अपान्तराल हैं विदिशाओं में भी इस अपान्तराल दूरी के बाद ही अलोकाकाश का प्रारंभ होता है इस रत्नप्रभा हो छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४९ छ है 'गोयभा! दुवालसएहि जोय णेहि अबाधाए लोयंते पण्णत्ते' हे गौतम ! २त्नप्रभा पृथ्वीनी पूर्व दिशामा રહેલ ચરમાંતથી બાર એજન પછી લેકને અંત અલક કહ્યો છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પૂર્વ દિશામાં જે ચરમાન છે, તેનાથી પછી અને અલેકની પહેલાં બાર યોજન પ્રમાણુ અપાતરાલ છે. ત્યાંથી જ અલકને પ્રારંભ થાય છે અલકની મર્યાદાનું પ્રારંભ થવું એજ લેકને मत छ 'एव' दाहिणिल्लाओ, पच्चस्थिमिल्लासो, उत्तरिल्लाओ' से प्रभारी દક્ષિણ દિશામાં પશ્ચિમ દિશામાં અને ઉત્તર દિશામાં પણ બાર બાર એજનને અપાતરાલ છે. આ દિશા સંબંધિ અપાતરાલનું કથન ઉપલક્ષણથી કહેલ છે. તેથી એમ પણ સમજવું કે વિદિશાઓમાં પણ એટલું જ અપાતરાલ છે. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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