SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९२ जीवाभिगमसूत्रे 'पगइ उवसंता' प्रकृत्युपशान्ता:-स्वभावत एव शान्ता: 'पगइ पयणुकोहमाणमा. यालोमा प्रकृत्येव प्रतनुकोधमानमायालोभा:-स्वभावत एव अतिमन्दीभूतकषाय चतुष्टयवन्त इत्यर्थः, 'मिउमद्दवसंयण्णा' मृदुमार्दवसंपन्नाः, मृदु-मनोज्ञं परिणाम सुखावहं यन्मादेवं तेन संपन्नाः 'अल्लोणा' आलीना:-आ-समन्तात् सर्वासु किय सु लीना गुप्ता: नोल्वण चेष्टाकारिण इति भावः । 'भद्दगा' भद्रकाः-सकल. तत्क्षेत्र कल्याणभागिनः, 'विणीया' विनीता:-वृहत्पुरुषविनयकरणशीलाः, 'अप्पेच्छा" अल्पेच्छाः अल्पशब्दोऽत्रा भाववाचकः तेन अल्पेच्छा इति इच्छावर्जिताः मणिकनकादि प्रतिबन्धरहिता, अत एव 'असंनिहिसंचया' असंनिधि. संचयाः, न विद्यते सनिधिरूपः संचयः कस्यापि वस्तु जातस्य संग्रहो येषां ते तथा। अत एव 'अचंड' अवण्डा' अङ्ग इत्यर्थः विडिमंतरपरिवसणा' विडिमान्तर परिवसनाः विडिमान्तरेषु प्रसादाद्याकृतिषु शाखान्तरेषु परिवसनम आकारमावासो येषां ते तथा, 'जहिच्छिय कामकामिणो य' यथेप्सित कामकामिन:-यथेप्सितान मनोवांछितान् कामान् शब्दादीन् कामयन्ते इत्येवंशीला: 'ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' पूर्वोक्तलक्षणयुक्ता स्ते एकोरुक वास्तव्या कोह माणमायालोभा, मिउमद्दवसंपन्न, अल्लीणा भद्दगा, विणीता, अप्पेच्छा,' ये मनुष्य स्वभावतःभद्र परिणाभी होते हैं स्वभावतः ही विनयशील होते हैं , स्वभाव से ही शान्त होते हैं , स्वभाव से ही ये अल्प कषाय वाले अल्प कोध, मान, माया और लोभ-वाले होते हैं स्वभाव से ही ये मृदु-मार्दव सम्पन्न होते हैं . स्वभाव से ही ये विनय आदि सद्गुणों वाले होते हैं इस प्रकार स्वभावतः भद्रक और विनीत भाव से युक्त हुए ये अल्प इच्छा वाले होते हैं 'असंनिहि संचया' इसी कारण ये कोई वस्तु का संचय संग्रह करने वाले नहीं होते हैं और 'अचंडा' ये क्रूर परिणामों वाले नहीं होते हैं । 'विडिमंतर परिव सणा' वृक्षां की शाखाओं के मध्य में रहते हैं 'जहिच्छिय कामगाउपसंता, पगति पयणु कोहमाण माया लोभा, मिउमदवस पन्ना, अल्लीणा भदगा, विणीता, अप्पेच्छा' से मनुष्ये। माथी सद्र परिणामवाणा डाय छे. नाव થી જ વિનયશીલ હોય છે. સ્વભાવથીજ અપ કષાયવાળા, અ૫ ક્રોધ, માન, માયા, અને લેભ વાળા હોય છે. તેઓ સ્વભાવથીજ મૃ૬ માર્દવ સંપન્ન હોય છે. એ જ પ્રમાણે સ્વભાવથી ભદ્રક અને વિનીત ભાવથી યુકત થયેલા तमा ५०५ ४२छापा हाय छे. 'असं नि हि संचिया' मे २0 १२तुना संग्रह ४२१। नथी. मने 'अचंडा' तसा २ परिणाम होता नथी. 'विडिमंतर परिवसणा' वृक्षानी शामासानी मध्यमा २३ छ 'जहिच्छिय कामगामिणो य ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' तथा से मनुष्यो पातानी જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy