SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३११ क्षुषामपि पविनयेत् प्रत्यासन्न तटवर्तिशल्लक्यादि किशलयभक्षणाव तथा-'जरंपि पविणेज्जा' ज्वरं परितापजनितमपि प्रविनयेत्-अपनयेत् । 'दाहपि पविणेज्जा' दाहमपि प्रविनयेत् परिदाहक्षुत्पिपासावगमात् । 'निदाएज्ज वा पयलाएज्जवा' एवं सकल क्षुधादि दोषापगमतः सुखादिमावेन निद्रायेत वा प्रचलायेत वा, तत्राऽनिद्रावान् निद्रावान् इव भवतीति क्विष्प्रत्ययार्थविवक्षायां निद्रादिभ्यः कर्मणि कयमत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निद्रादेराकृतिगणत्वादिति । तत्र सुख प्रबोधा स्वापावस्था निद्रा, ऊर्चेस्थितस्यापि या पुनश्चैतन्यमस्फुटीकुर्वती निद्रा समुपजायते सा पचलेति । एवं च क्षणमात्र निद्रालामतः अति स्वस्थी भूतः 'सइंवा' स्मृति वा-पूर्वानुभूतस्मरणम् 'रई वा' रति वा तदवस्थाऽऽसक्तिरूपाम् 'धिई वा' वह अपनी गर्मी को अच्छी तरह से शान्त कर लेता है और 'तिण्हंपि पविणेज्जा' तृषा को बुझा लेता है तथा 'खुहंपि पविणेज्जा' तटके पास के शल्लकी तृणजातिविशेष आदि के किसलयों (पलों) के भक्षण से क्षुधा को भी दूर कर देता है 'जरंपि पविणेज्जा' एवं परिताप जनित ज्वर को भी नष्टकर देता है 'दाहंपि पविणेज्जा' और परिदाह, क्षुधा, पिपासा के शान्त हो जाने से वह शरीर में व्याप्त हुई गर्मी को दूर कर देता है 'निदाएज्ज वा पयलाएज्जवा 'इस तरह से जब उसके शरीर में शीतलता का अनुभवन होने लगता है तो वह वहीं पर निद्रा लेने लग जाता है अर्द्ध निमी लितनेत्रों से प्रचला वाला बन जाता है जिसमें चेत रहे और सुख पूर्वक निद्रा भी आजावे उस अवस्थाका नाम निद्रा है और खडे २ पुरुष के चैतन्य को आच्छादित करती हुई निद्रा जैसी घूर्णता आती है वह प्रचला 'ओगाहिता' तमा प्रवेश ४शन से गं तत्थ उण्ह पि पविणेज्जा' तनाथ से डाथी पोतानी भी ने सारी शत शत री छ. तथा 'खुहंपि पविणेज्जा' કિનારાની પાસેના શત્સકી એક જાતનું ઘાસ વિગેરેના કિસલ (ઉપળો)ને ખાઈને पोतानी भूम ५ २ ४१ हे छे. 'जरं पि पविणेज्जा' मा परितापथी ययेस रनी ५५ नाश ४३ हे छे. 'दाह पि पविणेज्जा' भने परिहाई, सूप, तरसना, શાન થઈ જવાથી તે શરીરમાં વ્યાપ્ત થયેલ ગમને પણ દૂર કરી દે છે. 'निहाएज्जवा पयलाएज्जवा' न्यारे तेना शरीरमां ने अनुमान થવા માંડે છે, ત્યારે તે ત્યાંજ નિદ્રા લેવા માંડે છે. અર્થાત ઊંઘી જાય છે, તથા અર્ધ મચેલી આંખોથી પ્રચલા યુકત બની જાય છે. જેમાં જાગ્રતા રહે અને સૂખ પૂર્વક નિદ્રા પણ આવી જાય તે અવસ્થાનું નામ નિદ્રા છે, અને ઉભા ઉભા પુરૂષના ચૈતન્યને આચ્છાદિત કરતી થકી નિદ્રા જેવી આંખો ઘેરાય છે તેને પ્રચલા કહે છે. આ રીતે ક્ષણ માત્ર નિદ્રા પ્રાપ્તિથી સ્વસ્થ થયેલ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy