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________________ ८८ जीवाभिगमसूत्रे सामस्त्येन वेष्टयित्वा खलु 'चिटई' तिष्ठति-वर्तते तेन कारणेन वलयाकार. संस्थानसंस्थितो घनोदधिवलय इति ज्ञायते । ‘एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए घनोदधिवलए' एवं यावदधः सप्तम्याः पृथिव्याः घनोदधिवलयः, यथा रत्नप्रभा पृथिव्याः घनोदधिवलयो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः तथैव शर्कराप्रभा वालुका प्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमःममा तमस्तमःप्रभा पृथिवीनामपि धनोदधिवलयोवलयाकारसंस्थानसंस्थित एव ज्ञातव्यः, 'नवरं अप्पणपणं पुढवि संपरिक्खिताणं चिट्ठई' नवरमिति विशेषस्त्वयम्-यद् घनोदधिवलयः आत्मीयात्मीयां शर्कराप्रभातोऽधः सप्तमी पर्यन्तं स्वस्व सम्बन्धिनीं पृथिवीं संपरिक्षिप्य खलु अच्छी तरह से परिवेष्टित करके ठहरा हुआ है, इस कारण यह ज्ञात होता है कि यह घनोदधि वलय वलय के आकार जैसा गोल है 'एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए घनोदहिवलए' रत्नप्रभा पृथिवी का घनोदधि वलय जिस प्रकार से वलयाकार के संस्थान से संस्थित कहा गया है उसी तरह से शर्कराप्रभा पृथिवी का पङ्क प्रभा पृथिवी का, धूम प्रभा पृथिवी का, तमः प्रभा पृथिवी का, और तमस्तमः प्रभा सातवीं पृथिवी का घनोदधि वलय भी वलयाकार के संस्थान से संस्थित कहा गया है ऐसा जानना चाहिये 'नवरं अप्पणप्पणं पुढवि संपरिक्खित्ताण चिटई' परन्तु इस कथन में ऐसी विशेषता जाननी चाहिये कि घनोदधि अपनी अपनी पृथिवी को घेरे हुए है जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी का घनोदधि वलय रत्न प्रभा पृथिवी के चारों ओर से हुए हैं उसी प्रकार से शर्करा पृथिवी का घनोदधि वलय घनधिqaय यारे मा भने विशयामा सपरक्खित्ता' सारी शत વીટળાઈને રહેલ છે, તે કારણથી એમ જણાય છે કે આ ઘોદધિ વલય मसोयाना मा.२ २३ गण छ, 'एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए प्रणोदही वलए' नमला पृथ्वीन घनधि सय २५ मायाना આકાર જેવા સંસ્થાનથી રહેલ કહ્યો છે, એ જ પ્રમાણે શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીને, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીને, તમપ્રભા પૃથ્વીને, અને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીનો ઘનેદધિવલય પણ બયાના આકર જેવા સંસ્થાનથી યુકત કહેલ છે. તેમ सम'. 'नवर अप्पणप्पण पुढवि संपरिक्खित्ताण चिइ' ५२'तुमा थनमा એવું વિશેષ પણે સમજવું જોઈએ કે તે બધા ઘનોદધિ પિતાપિતાની પૃથ્વીને ઘેરીને રહેલા છે. જેમ રતનપ્રભા પૃથ્વીને ઘને દધિ વલય રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ચારે તરફથી ઘેરીને રહેલ છે, એ જ પ્રમાણે શર્કરામભા પૃથ્વીને ઘને દધિ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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