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________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स.६५ ईर्यासमितादि विषये भगवद् गौतमयोः संवादः ६६३ कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्ध महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, तेत्तीस सागरोक्माई ठिई, आराहगा, सेसं तं चेव ॥ सू०६८॥ मनुजभवभाविनी वा अर्चा=तनुर्येषां त एकार्चाः 'पुण' पुनः, अत्र पुनःशब्द उक्तार्थापेक्षया वैलक्षण्यद्योतनार्थः, 'एगे' एके-अन्ये तु 'भयंतारो' भक्तारः संयमसेविनः, 'भयंतारो' इत्यत्रानुस्वार आर्षत्वात् 'पुधकम्मावसेसेणं' पूर्वकर्मावशेषेण पूर्वकृतकर्मणामवशेषेण 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा-'उक्कोसेणं सचट्ठसिद्ध महाविमाणे उत्कर्षण सर्वार्थसिद्धे महाविमाने 'देवत्ताए' देवत्वेन 'उववत्तारो भवंति' उपपत्तारो भवन्ति उत्पद्यन्ते, 'तर्हि तेसिं गई तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई' तत्र तेषां गतिः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि स्थितिः। 'आराहगा' आराधकाः परलोकस्याऽऽराधकाः, 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव ।। सू.६८॥ हैं कि जिन्हें उसी भव से केवलज्ञान एवं केवलदर्शन का लाभ नहीं होता है तो ऐसे वे अनगार भगवान् (एगच्चा) एकभवावतारी होते हैं। ये (भयंतारो) संयम को आराधना करते २ ही (पुम्बकम्मावसेसेणं) पूर्वकर्म के अवशिष्ट होने के कारण (कालमासे कालं किच्चा). काल अवसर में काल कर (उक्कोसेणं) उत्कर्ष से (सबसिद्ध महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) सर्वार्थसिद्ध नामके महाविमान में देवपर्याय से उत्पन्न हो जाते हैं। (तहिं तेसिं गई, ठिई तेत्तीस सागरोवमाइं) वहीं पर उनकी गति और स्थिति होती है। इनकी स्थिति वहाँ पर तेतीस सागर प्रमाण है। (आराहगा सेसं तं चेव) ये नियम से परलोक के आराधक होते हैं। अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये। सू. ६८॥ ભગવાન હોય છે કે જેમને તેજ ભવમાં કેવળજ્ઞાન તેમજ કેવળદર્શનને साल भगत नथी तो मेवा तमनार मवान (एगच्चा) सातारी डाय छे. ते (भयंतारो) संयमनी साराधना ४२i ४२di ar (पुव्वकम्मावसेसेणं) पूर्वमना माडी २९वान रणे (कालमासे कालं किच्चा) ४-मसरे ४८ ४रीने (उक्कोसेणं) ४ 43 (सव्वदसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) सथिसिद्ध नामना मडाविमानमा हेवपर्याथी उत्पन्न थाय छे. ત્યાં તેમની ગતિ અને સ્થિતિ હોય છે. તેમની ત્યાં સ્થિતિ તેત્રીસ સાગર प्रभाय छे. (आराहगा सेसं तं चेव) तेस। नियमयी ५२४ मा२।५४ सोय छ, माडी मधु अ॥ प्रमाणे सभाध्ये . (सू. १८)
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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