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________________ ६५४ औपपातिक रित्ता भत्तं पच्चक्खंति, ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवति, तर्हि तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाई ठिई, आराहगा, सेसं तहेव ॥ सू० ६३ ॥ " विहरन्ति, ' विहरिता' विहृत्य ' भत्तं पच्चक्खति ' भक्तं प्रत्याख्यान्ति = परित्यजन्ति, 'अणसणाए छेदेंति' अनशनया छिन्दन्ति, ' छेइता ' छित्त्वा ' आलोइयपडिकंता ' आलोचितप्रतिक्रान्ताः, ' समाहिपत्ता ' समाधिप्राप्ताः, ' कालमासे' कालमासे ' कालं किच्चा ' कालं कृत्वा ' उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे ' उत्कर्षतोऽच्युते कल्पे ' देवत्ताए उबवत्तारो भवंति ' देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति । ' तहिं तेसिं गई' तत्र तेषां गतिः, 'बावीस सागरोवमाई ठिई ' द्वाविंशतिं सागरोपमानि स्थितिः, 'आराहगा ' आराधकाः, ' सेसं तहेव ' शेषं तथैव ॥ सू० ६३ ॥ 6 पञ्चक्खंति) पश्चात् अन्तिम समय में भक्तप्रत्याख्यान करते हैं, (ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति) वे अनेक भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करते हैं, (छेदित्ता आलोइयपडिकंता सामाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा ) छेदन कर अपने पापस्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके वे समाधिसहित काल अवसर में काल कर (उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ता उत्तारो भवति) जघन्य पहले देवलोक उत्कृष्ट बारहवें देवलोक अच्युतकल्प में देवपर्याय से उत्पन्न होते हैं । (तर्हि तेसिं गई, बावीसं सागरोवाई ठिई, आरहगा, सेसं तहेव) प्रथम देवलोक में इनकी उत्कृष्ट दो सागरोपम और बारहवें देवलोक पछी संतसमये लस्त-प्रत्याच्यान रे छे. (ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति) तेथेो मने लङतोनुं अनशन द्वारा छेटुन उरे छे. (छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा) छेढन उरीने पोतानां पायस्थानानी આલેાચના તેમજ પ્રતિક્રમણ કરીને તેઓ સમાધિ–સહિત કાલ અવસરમાં કાલ ४ने (उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति ) ४धन्य पडेला देवલાક, ઉત્કૃષ્ટ ખારમા દેવલે અચ્યુત કલ્પમાં દેવપર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે. ( तहिं तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाई ठिई, आराहगा, सेसं तहेव ) प्रथम દેવલાકમાં તેમની ઉત્કૃષ્ટ એ સાગરોપમ અને ખારમા દેવàાકમાં ઉત્કૃષ્ટ
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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