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________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. २ गौतमस्वामिनो भगवत्समीपे गमनम् ५०१ प्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उठाए उठेइ, उहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता 'समुप्पण्णसंसए' समुत्पन्नसंशयः, 'समुप्पण्णकोऊहल्ले' समुत्पन्नकुतूहलः, श्रद्धादयः शब्दा व्याख्याता एव । अत्रैवं श्रद्धादौ कार्यकारणभावः । प्रश्नवाञ्छारूपा श्रद्धा जाता, तस्याः कारणं-संशयः कुतूहलं चेति । 'उद्वाए उठेइ' उत्थया उत्थानशक्त्या स्वासनात् उत्तिष्ठति, उत्थाय, जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरो विराजत इति शेषः, 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य, 'समणं भगवं महावीरं' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य, 'तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ ' त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'वंदइ णमंसइ' तरह अपने प्रश्न के उत्तर को सुनने के लिये जो उनके चित्त में उत्कण्ठा जागृत हुई वह भी सामान्यरूप से ही। फिर बाद में 'उत्पन्नसड्ढे' आदि पदों द्वारा जो सूत्रकार ने श्रद्धा को उत्पन्न आदिरूप में प्रकट किया है उससे श्रद्धा आदि में उत्तरोउत्तर विशेषता जाननी चाहिये । इस प्रकार के वे गौतमप्रभु (उवाए उठेइ) उत्थानशक्ति द्वारा अपने स्थान से उठे और (उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छइ) उठकर जहां प्रभु श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे वहाँ पहुँचे, (उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) पहुँचते ही उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर प्रभु को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिण किया, (करित्ता वंदइ णमंसइ) फिर बाद में वंदना एवं ઉત્પન્ન થયે તે પણ સામાન્યરૂપથી જ થયો હતો. આવી જ રીતે પોતાને પ્રશ્નનો ઉત્તર સાંભળવાને માટે તેમના ચિત્તમાં જે ઉત્કંઠા જાગ્રત થઈ તે પણ सामान्य३५नी४ ता. पण त्या२ ५छी (उप्पण्णसड्ढे) मावि ५ ६२रा रे સૂત્રકારે શ્રદ્ધાને ઉત્પન્ન આદિ રૂપથી પ્રકટ કરી છે તેથી શ્રદ્ધા આદિમાં उत्तरोत्तर विशेषता नवी ने. २॥ ५४॥२ ते गौतम प्रभु (उढाए उद्वेइ) 'उत्थानशति द्वारा पोताना स्थानथी ४२, मने ( उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ) ने न्यi प्रभु श्रम भगवान महावीर मि२१४मान ता त्यां पांच्या. (उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) पयतi on तभणे श्रम मवान महावीर प्रभुने एy
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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