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________________ पीयूषवर्षिणी टीका स्व. ५७ अनगार धर्मनिरूपणम्. ४७७. राइभोयण-वेरमणं। अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवहिए णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । अर्थात् परिगृह्यते=समूर्च्छ स्वीक्रियत इति परिग्रहः-धर्मोपकरणभिन्नं सर्वमित्यर्थस्तस्माद् विरमणम् ॥ ५ ॥ रात्रिभोजनं-रात्रौ भोजनं तस्माद् विरमणम् ॥ ६ ॥'अयमाउसो ? अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते' अयमायुष्मन् ? अनगारसामयिकः-अनगाराणां साधूनां समये सिद्धान्ते, यद्वा आचारे भवः, धर्मः प्रज्ञप्तः कथितः । 'एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवद्विए' एतस्य धर्मस्य शिक्षायाम् आसेवने उपस्थितः उद्युक्तः, 'णिग्गंथे वा' निम्रन्थः साधुर्वा ‘णिग्गंथी वा निर्ग्रन्थी वा उपस्थिता साध्वी वा-'विहरमाणे' विहरमाणः विचरन् 'आणाए आराहए भवई' आज्ञायाः सर्वज्ञोपदेशस्य आराधको भवति । इत्थमनगारधर्ममुपदिश्य संप्रत्यगारधर्ममुपदिशति, तदेवाह-'अगारधम्म' इत्यादि । गया है । क्यों कि प्राणियों को इनमें 'ममेदंभाव' होता है । इस परिग्रह से विरक्त होना परिग्रहविरमण महाव्रत है। रात्रि में भोजन नहीं करना-इसका नाम रात्रिभोजनविरमण व्रत है । (अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) हे आयुष्मन् ! सिद्धान्त में यह साधुओं का आचारजन्य धर्म प्रतिपादित किया गया है । (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवहिए)इस साधु के धर्म के आसेवन में उपस्थित (तत्पर) चाहे निर्ग्रन्थ-साधु हो, चाहे निर्ग्रन्थी-साध्वी हो, (विहरमाणे) जो इसे अपने आचरण में लाता है वह (आणाए आराहए भवइ) प्रभु सर्वज्ञ के आज्ञा का आराधक माना जाता है । इस प्रकार अनगारधर्म की प्ररूपणा कर के प्रभुने — गृहस्थ का क्या धर्म है ?' इसकी प्ररूपणा इस प्रकार की બધાં ધન ધાન્ય આદિકની, પરિગ્રહમાં ગણના થાય છે. કેમકે પ્રાણિઓને सभा 'ममेदभाव' थाय छे. ये परियडथी वि२४त थj से परियड-विरभर મહાવ્રત છે. રાત્રિમાં ભોજન ન કરવું તેનું નામ રાત્રિભોજન વિરમણ વ્રત છે. (अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) हुमायुष्यमान ! सिद्धांतमा साधुमाना मायान्य मा धर्मनु प्रतिपान ४२८ छे. (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवद्विए) साधुना मा भने पावामा उपस्थित-तत्पर, यात निधन्य-साधु डोय आई ते नियन्थी-साध्वी य (विहरमाणे) २ माने मायरमा दावे ते (आणाए आराहए भवइ) प्रभु सर्वशनी माज्ञानमारा मनाय छे. આ પ્રકારે અનગાર ધર્મની પ્રરૂપણ કરીને પ્રભુએ “ગૃહસ્થને શું ધર્મ છે તેની
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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