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________________ ४७५ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ५७ अनगार धर्मनिरूपणम्. धम्मं अणगारधम्मं च । अणगारधम्मो ताव - इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय - अदिण्णादाण मेहुण- परिग्गहमनगारधर्ममेव व्याचष्टे–' अणगारधम्मो ताव ' इति । अनगारधर्मस्तावत् - तावत् = प्रथमम् अनगारधर्म उच्यते -' इह खलु सन्त्रओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं ' इह खलु सर्वतः सर्वात्मना मुण्डो भूत्वाऽगारादनगारितां प्रव्रजितस्य सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणम्-इह जगति खलु सर्वतः=द्रव्यतो भावतश्चेत्यर्थः, सर्वाऽऽत्मना = परमवैराग्येण मुण्डो भूत्वा - द्रव्यतो मुण्डो मस्तके लुञ्चितकेशः, भावतस्तु कषायागामपनयनमिति मुण्डलक्षणधर्मयोगात्पुरुषो मुण्ड उच्यते, अत्र 'अर्श आदिभ्योऽच्' इत्यच्प्रत्ययः; तादृशो भूत्वेत्यर्थः; अगाराद् - गृहात् गृहं (अणगारधम्मो ताव) अनगार का धर्म वे ही जीव पालन करते हैं जो (इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय - आदिण्णादाण मेहुण - परिग्गह- राई भोयणवेरमणं) यहां सर्व प्रका से- द्रव्य एवं भावरूप से, सर्वात्मना - परमवैराग्य संपन्न होकर मुंडित हो जाते हैं । यह मुंडित अवस्था द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का है - केशों का लुंचन करना द्रव्यमुंडन है, एवं कषायों का त्याग करना भावमुंडन है, मुंडित होकर जो अपने गृह का परित्याग कर साधु की दीक्षा से दीक्षित हो जाता है। उसका नाम अनगार है । इस अनगार अवस्था में (१) मुंड पद से मुंडित पुरुष का मत्वर्थीय अच्प्रत्यय करने से ग्रहण हुआ है । परभ धर्म (अणगारधम्मो ताव) अनगारना ધમ તેજ જીવ પાલન કરે છે જે ( इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय - अदिण्णादाण - मेहुण - परिग्गह-राईभोयणवेरमणं) अडीं सर्व प्रारथी- द्रव्य तेमन लाव ३५थी सर्व प्रारे વૈરાગ્ય–સપન્ન થઈ જાય છે. આ મુંડિત અવસ્થા દ્રવ્ય તેમજ ભાવ ના ભેદથી બે પ્રકારની છે-કેશલ ચન કરવુ” એ દ્રવ્યમુંડન છે, તેમજ કષાયાના ત્યાગ કરવા' એ ભાવમુડન છે. મુડિત થઈ જે પેાતાના ઘરનેા ત્યાગ કરી સાધુની દીક્ષાથી દીક્ષિત થઈ જાય છે તેમનું નામ અનગાર છે. આ અનગાર अप(१) मुंड शब्दथी भुंडित पुरुषने। मत्वर्थीय अच् प्रत्यय लगाउवाथी ગ્રહણ કર્યો છે.
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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