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________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् ३४७ मूलम्-तए णं चंपाए णयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जणवूहे इ वा टीका-'तए णं' इत्यादि। ततः तदनन्तरं चतुर्निंकायदेवानामागमनाऽनन्तरं, खलु 'चंपाए णयरीए' चम्पायां नगर्याम् 'सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु' शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु-तत्रशृङ्गाटकं-'सिंघाडा' इति भाषाप्रसिद्धं जलजं फलं, तदाकारं स्थानं, त्रिकोणमित्यर्थः; त्रिकं-मिलितत्रिमार्गस्थानम् , चतुष्कं यत्र चत्वारो मार्गा मिलिताः सन्ति तत्-'चोराहा' इति भाषाप्रसिद्ध स्थानम्, चत्वरं बहुमार्गसंमेलनस्थानम्, चतुर्मुखं चतुर्दारं स्थानम्-आगन्तुकादीनां विश्रामस्थानम् , महापथः-राजमार्गः, पन्थाः रथ्यामात्रम् , तेषु सर्वेषु स्थानेषु यत्र ‘महया जणसद्दे इ वा' महान् जनशब्दः-परस्पराऽऽलापादिरूपो भवति ‘इकारो' वाक्यालङ्कारार्थः, 'वा'-प्रकारार्थः; तथा 'जणवूहे इ वा ' जनव्यूहः-लोकसमूहः, 'जण ... 'तए णं चंपाए णयरीए' इत्यादि। (तए णं) चतुर्निकाय के देवों के आगमन के अनन्तर (चंपाए णयरीए) चंपा नगरी में (सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) शृंगाटकतीनकोनवाले स्थान पर, त्रिक-जहां पर तीन रास्ते आकर मिलते हैं ऐसे स्थान पर, चतुष्क-जहां पर चार मार्ग आकर मिले रहते हैं ऐसे चौराहे पर, चत्वर-अनेकमार्गीका संमेलन जहाँ होता है ऐसे स्थान पर, चतुर्मुख-आगन्तुक जनों के विश्रामार्थ निर्मापित स्थान पर, महापथ-राजमार्ग पर, एवं पथ अर्थात् जहाँ से गली निकलती हो ऐसे स्थान पर, (महया जणसद्दे इ वा) महान् जन शब्द होने लगा-परस्पर मिलजुल कर लोग बातचीत करने लगे। (जणवूहे इ वा) एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से पूछने लगा, अथवाપૂર્વે કહેલા અસુરકુમારની પેઠે ત્રણવાર અંજલિપૂર્વક સવિધિ વંદના ४शने प्रमुनी सेवा ४२वा साया. (सू. 3७.). 'तए ण चंपाए णयरीए' त्यादि। । (तए ण) यतुनियन वोना मागमन पछी (चंपाए णयरीए) यापानगरीमा (सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) शंगाटक-त्रtyा स्थान ५२, त्रिक-न्याय २२ मावाने भणे छ सेवा स्थान ५२, चतुष्क-न्य या२ भाग मावीने भले छ सेवा यौटा ५२, चत्वर-मने४ भानु सभेतन ज्यां थाय छ । स्थान ५२, • चतुर्मुख-माना२ मा - साना विश्राम भाट भु४२२ ४२i स्थान ५२, महापथ--२४५२, मेव पथ-अर्थात् न्याथी. सीनागी डाय तवां स्थान। ५२, (महया जणसद्दे इ वा) મહાન જન-શબ્દ થવા લાગ્યા-પરસ્પર મેલામલાપ કરી લેકે વાતચીત
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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