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________________ ३३८ वच्छ गहिय- वेसा पमुइय-कंदप्प-कलह-केली-कोलाहल-प्पिया हास-बोल - बहुला अणेग-मणि-रयण-विविह- णिज्जुत्त-विचित्त- चिंधगया सुरूवा महिड्ढिया जाव पज्जुवासंति ॥ सू० ३५॥ =कृतः वेषः शरीरशोभाssधायकप्रसाधनं यैस्ते तथा, तत्र नेपथ्यं - 'पोशाक' इति भाषाप्रसिद्धम्, 'पमुइय-कंदष्प-कलह-केली-कोलाहल - पिया' प्रमुदित-कन्दर्प-कलह-केलि-कालाहल-प्रियाःप्रमुदितानां यः कन्दर्पप्रधानः कलहः केली = क्रीडा, तज्जन्यः कालाहलः - कलकलः प्रियेो येषां ते तथा, कामकलहक्रीडाकेालाहलपरायणा इत्यर्थः । ' हास - बाल - बहुला' हा सध्वनि बहुलाः 'अग-मणि-रण- विविह- णिज्जुत्त-विचित्त-चिंध गया' अनेक-मणि-रत्न-विविध-निर्युक्त - विचित्र-चिह्नगताः-अनेकानि यानि मणिरत्नानि तानि विविधनिर्युक्तानि विविधप्रकारेण यथास्थानस्थितानि, तान्येव विचित्रचिह्नानि तानि गताः = प्राप्ताः । 'सुरुवा' सुरूपाः - सुन्दराऽऽकाराः। महिड्डिया ' महर्द्धिकाः – महासम्पत्तियुक्ताः । ' जाव पज्जुवासंति' यावत्पर्युपासते- -आदक्षिण प्रदक्षिण-वन्दनादीनि पूर्ववत् कृत्वा भगवतः श्रीमहावीरस्याभिमुखे स्थिताः कृतप्राञ्जलिपुटाः भगवन्तं श्रीमहावीरं सेवन्ते - इति ॥ सू० ३५ ॥ औपपातिक की ये पोशाक धारण किये रहते हैं । (पमुइय - कंदप्प-कलह - केली - कोलाहल- प्पिया ) प्रमुदितों का जो कन्दर्पप्रधान कलह एवं क्रीडा होती है इससे जन्य जो कोलाहल होता है वह इन्हें अधिक प्रिय रहा करता है । ( हास-बोल - बहुला ) ये हँसी-मजाक करने में बड़े चतुर होते हैं । (अणेग - मणि - रयण - विविह- णिज्जुत्त-विचित्त - चिंध-गया) अनेक मणिरत्न, जो कि विविध प्रकार से यथास्थान पर निवेशित रहा करते हैं वे ही जिनके विचित्र चिह्न हैं ऐसे, (सुरुवा) सुन्दर आकार विशिष्ट, (महिड्डिया ) एवं महाऋद्धियुक्त वे व्यन्तर देव ( जात्र पज्जुवासंति) पूर्ववर्णित असुरकुमारों की तरह दोनों हाथ जोड़कर वंदना एवं नमस्कार करके प्रभु महावीर की सेवा में संलग्न हुए ॥ सू० ३५ ॥ જે કન્દ્ર પ્રધાન કલહ એવં ક્રીડા થાય છે તેમાંથી જે કાલાહુલ ઉત્પન્ન थाय छे ते तेभने अधि प्रिय लागे छे. (हास - बोल-बहुला) हांसी - भन्न ४२वामां मा महु ४ यतुर होय छे. (अणेग-मणि-रयण- विविह- णिज्जुत्त-विचित्तचिंध-गया) मने मणिरत्न ने विविध प्रहारे यथास्थान निवेशित रहे छे ते ४ यानां विचित्र चिह्न छे. सेवा (सुरुवा) सुंदर भार યુક્ત (महिडिडया) व भड्डा - ऋद्धियुक्त ते व्यन्तरहेव (जाव पज्जुवासंति) पूर्वे उडेला અસુરકુમારાની પેઠે બન્ને હાથ જોડી વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને પ્રભુ महावीरनी सेवाभां लग्न थया (सू. 34)
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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