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________________ ३२४ ओपपातिकसूत्रे मुणालिया-धवल-दंतसेढी, हुयवह-णिद्धंत-धोय-तत्ततवणिज-रत्ततल-तालुजीहा अंजण-घणकसिण-रुयग-रमणिज-णिद्ध-केमा, वामेग-कुंडलधरा अद-चंदणा-लि-गत्ता ईसी-सिलिंध-पुप्फ-प्पगागोक्षीरफेनदकरजोमृणालिकावद् धबलाः दन्तश्रेण हो येषां ते तथा, तत्र दकरजः-जलकणः । 'हतवह-णिदंत-धोय-तत्ततवणिज्ज-रत्ततल-ताल नीहा' हुतबह-निर्मात-धौत-तप्ततपनीयरक्ततलतालुजिह्वाः-हुतवहेन वह्निना निर्मातं-प्रतापितं धौतं-जलप्रमार्जितं तप्तं यत् तपनीयं-सुवर्ण, तद्वद् रक्ततलम्-अरुणोपरिप्रदेशं तालुजिह्र येषां ते तथा-अतिप्रतप्तसंमृष्टसुवर्णवर्णतालजिह्वावन्तः। 'अंजण-घणकसिग-रुयग-रमणिजणिद्ध केसा' अञ्जनधनकृष्णरुचकरमगीयस्निग्धकेशाःअञ्जनं-कजलं, धना-मेधः, एतत्सदृशाः कृष्माः कृष्णवर्गाः, तथा रुचको-मणिविशेषः, तद्वत् स्निग्धाः-चिक्कणाः--केशा येषां ते तथा, कामेगकुंडलधराः' वामैककुण्डलधराः–वामे कर्णे-एककुण्डलधारिणः, न तु दक्षिणे कर्णे; तज्जागीयस्वभावात् एकस्मिन्नेव कर्णे कुण्डलधारकाः दक्षिणे कर्णे त्वन्याभरणधारिण इतिभावः। 'अदचंद ाणुलित्तगत्ता'आर्द्रचन्दनानुलिप्तगात्राः-सद्योसमान शुभ्र, एवं शङ्ख, गोक्षीर, फेन, जलकण और मृणाल के समान अत्यन्त निर्मल इनकी दन्तपङ्कि थी।(हृतवह-णिदंत-धोय-तत्त-भवणिज्ज-रत्ततल-तालुजीहा) पहिले वह्नि में तपाये गये पश्चात् तेजाब में धोये गये पुनः अनि में तपाकर उज्ज्वल किये गये सुवर्ण के समान रक्ततलवाले इनके तालु और जिह्वा थी। (अंजण-घण-कसिण-रुयग-रमणिज्जणिदरकेसा) इनके केश अंजन एवं काले मेघ के समान काले तथा रुचक के समान चिकने । (वामेगकुंडलधरा) इनके वाम कर्ण में कुडल शोभित हो रहा था । इनमें ऐसी प्रथा है कि, ये लोग बायें कान में कुण्डल पहनते हैं और दाहिने कान में अन्य आभूषा । दाहिने कान में ये कभी भी कुण्डल नहीं पहनते हैं। अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता) आर्द्र चन्दन से समान शुभ्र भने ५, क्षीर (६५), ९, ४६४९ न्यने भृार (४भ४४) नवी अत्यन्त निभ मेमनी हतपतिमा ती. (हुतवह णिद्धंत-धोयतत्त-तवणिज्ज रत्ततल तालु-जीहा) पडसा भातपायदा पछी तेनमा घायलों सुवर्ण नावi ane di qui मेमना drai मने म तi. (अंजण-घणकसिण-रुयग-रमणिज्ज-णिद्ध-केसा) मेमना 41 mixey मने ४i lami रेवा तथा सुचना वा चा उता. (वामेगकुंडलधरा) मेमना । કાનમાં કુંડળ શોભી રહ્યાં હતાં. એમાં એવી પ્રથા છે કે એ લોક ડાબા કાનમાં કુંડળ પહેરે છે અને જમણા કાનમાં બીજું ઘરેણું. આ લોગો भए। ४ानमा यारे ५५ पता नथी. ( अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता)
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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