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________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू. २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १९३ इव गुतिंदिया, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा, गगणमिव निरालंबणा, यथा प्रतिबिम्बितान् मुखाद्यवयवान् यथावस्थितं प्रकटीकुर्वन्ति, तथा यत्कृतदेशनया जनानां चित्तदर्पणे जीवाजीवादिसकलपदार्थाः सुस्पष्टं प्रकाशन्ते इत्यर्थः । 'कुम्मो इव गुतिंदिया' कूर्म इव गुप्तेन्द्रियाः-कूर्मो यथा भयहेतौ सति संवृतसर्वेन्द्रियो भवति तथा संसारभ्रमणभयाद् गुप्तानि-विषयकषायेभ्यः संरक्षितानि इन्द्रियाणि येषां ते गुप्तेन्द्रियाः। 'पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा' पुष्करपत्रमिव निरुपलेपाः-यथा कमलपत्रं निर्लिप्तं सत् जलोपरि तिष्ठति तथा निरुपलेपाः-पङ्कजलतुल्यस्वजनविषयसम्बन्धरहिता भवन्तीति भावः । 'गगणमिव निरालंबणा' गगनमिव निरालम्बनाः-कुलग्रामनगराधालम्बनवर्जिताः, जीवाजीवादिविषयक देशना ऐसी होती थी कि जिससे मनुष्यों के चित्तरूपी दर्पण में उत्पादादि--स्वभाव वाले समस्त जीवादिक पदार्थ अच्छी तरह-स्पष्टरूप से प्रतिभासित होने लगते थे। (कुम्मो इव गुतिंदिया) कच्छप जिस प्रकार भय के कारणों के उपस्थित होने पर समस्त इन्द्रियों को लंगोपित कर लेता है उसी प्रकार ये मुनिजन भी संसारपरिभ्रमण के भयसे विषय-कषायों की ओर से अपनी २ इन्द्रियों को सुरक्षित किये हुए रहते थे। (पुक्खरपत्तंव निरुवलेवा) जिस प्रकार कमलपत्र जल से निर्लिप्त होकर उस के ऊपर रहता है और कीचड से उत्पन्न होने पर भी जैसे वह उसके संबंध से रहित होता है इसी प्रकार ये साधुजन भी कीचड एवं जलतुल्य स्वजन, एवं विषयों के संबंध से बिलकुल रहित थे। (गगणमिव निरालंबणा) आकाश की तरह ये कुल, ग्राम और नगर आदि के सहारे की अपेक्षा नहीं रखते थे। ( अणिलो इव निरालया) पवन की तरह घर આદિક પદાર્થોને પ્રકટ કરતા હતા. તેમની જીવાજીવાદિ વિષયની દેશના એવી થતી હતી કે જેથી મનુષ્યના ચિત્તરૂપી દર્પણમાં ઉત્પાદ આદિ સ્વભાવવાળા સમસ્ત જીવાદિક પદાર્થ સારી રીતે સ્પષ્ટરૂપે પ્રતિભાસિત થતા હતા. (कुम्मो इव गुत्तिंदिया) आयो म नयनां ॥२॥ मावी ५i समस्त ઇંદ્રિઓને સંગપિત કરી લે છે તેમ એ મુનિજને પણ સંસાર–પરિભ્રમણના ભયથી વિષયકષાયની તરફથી પિતપતાની ઈંદ્રિઓને સુરક્ષિત રાખતા હતા. ( पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा) म भणपत्र सथी निर्मित थने तेनी ५२ રહે છે અને કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ જેમ તે તેના સંબંધથી રહિત હોય છે તેવી જ રીતે સાધુજન પણ કીચડ તેમ જ જલતુલ્ય स्वान तेम ४ विषयोन। समथी भिस २डित ता. ( गगणमिव निरालंबणा) २४ाशनी पेठे तेमा म अने ना२ महिना मायनी
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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