SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९३ औपपातिकसूत्रे हियए धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइय-ऊसविय-रोमकूवे वियसिय-वर-कमल-णयण-वयणे पयलिय-वर-कडग-तुडिय-केऊरशयेन प्रमुदितहृदयः, 'धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइय-ऊसविय-रोमकूवे' धारा-हत-नीप-सुरभि-कुसुममिव रोमाञ्चितो-च्छ्रित-रोमकूपः, तत्र-धाराभिःजलधरजलधाराभिः आहतं संसिक्तं यत्-नीपस्य कदम्बस्य सुरभि परिमलयुक्तं कुसुमं पुष्पम् तदिव 'चंचुमालइय' इति देशीयः शब्दः, रोमाञ्चित इत्यर्थः, अतएव उच्छ्रितः-उच्चतां गतो रोमकूपो-रोमस्थानं यस्य स उच्छ्रितरोमकूपः, ततः “पदद्वयस्य कर्मधारयः । “विअसिय-वर-कमल-णयण-वयणे' विकसित-वर-कमलनयन-वदनः-विकसितवरकमलवन्नयनवदनं यस्य स तथा, 'पयलिय-वर-कडगतुडिय-केंऊर-मउड-कुंडल-हार-विरायंत-रइय-वच्छे' प्रचलित-वर-कटक-त्रुटित-केयूरमुकुट-कुण्डल-हार-विसजमान-रचित-वक्षस्कः-प्रचलितानि-प्रकम्पितानि वर--कटक-त्रुटितकेयूर-मुकुट-कुण्डलानि यस्य स तथा, तत्र-वरौ श्रेष्ठौ, कटकौ वलयौ, त्रुटितेबाहुरक्षकभूषणे, केयूरौ-बाहुभूषणे भुजबन्धविशेषौ, मुकुटं शिरोभूषणम्, कुण्डले= कर्णभूषणे-इति, तथा हारः अष्टादशसरिकादिकः, विराजमानः शोभमानः, रचितः विन्यस्तःबहुत ही हृष्ट तुष्ट एवं आनन्दित हुए, (धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइयऊसविय-रोमकूवे) जिस प्रकार बरसात की धारा से सींचे जाने पर कदम्ब के सुगन्धित फूल एकदम विकसित हो जाते हैं, उसी प्रकार भगवान् के पधारने का समाचार सुनकर राजा के रोम खडे हो गये, (वियसिय-वर-कमल-णयण-वयणे) उनके नेत्र और मुख दोनों कमल के समान विकसित हो गये। (पयलिय-वरकडग-तुडिय-केऊस्मड्ड-कुंडल-हार-विरायंत-रइय-वच्छे) अपार हर्ष के मारे कम्पित इनके शरीर पर धृत श्रेष्ठ दोनों वलय, दोनों त्रुटित-बाहुरक्षकभूषण, तुष्ट भ०४ मानहित यया. [धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइय-ऊसविय-रोमकूवे) ने मारे १२साहनी धाराथी सी याये। मन સુગંધિત ફૂલ એકદમ ખીલી નીકળે છે તે જ પ્રકારે ભગવાનના પધારવાના સમાચાર સાંભળીને રાજાનાં રોમે રેમ આનંદથી પુલકિત થઈ ઉભાં થયાં, ( वियसिय--वर-कमल-णयण-वयणे ) मन नेत्र तथा भुभ भन्ने माना रेभ. विसीय. ( पयलिय-पर-कडग-तुडिय-केऊर--मउड-कुंडल-हार-विरायंतरइय-वच्छे) अपार पने सपने पायमान थतi मनां शरीर ५२ पा२७५ કરેલાં શ્રેષ્ઠ બને વલય (કડાં), બને ત્રુટિતઆતુરક્ષક ભૂષણ, બંને કેયૂર
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy