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________________ औपपातिकसूत्र धिर्येन तत् तीर्थम् चतुर्विधः सङ्घः, तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरः । 'सयंसंबुद्ध' स्वयंसम्बुद्भःस्वयं परोपदेशमन्तरेण सम्बुद्धः सम्यक्तया बोधं प्राप्तः-स्वयंसम्बुद्धः । 'पुरिमुत्तमे' पुरुषोत्तमः-पुरुषेषु उत्तमः-श्रेष्ठः-ज्ञानाद्यनन्तगुणवत्त्वात्पुरुषोत्तमः । 'पुरिससीहे ' पुरुषसिंहः-पुरुषेषु सिंहः-रागद्वेषादिशत्रुपराजये दृष्टाऽद्भुतपराक्रमत्वात् इति, यद्वा-पुरुषः सिंह इव इति पुरुषसिंहः । “पुरिसवरपुंडरीए' पुरुषवरपुण्डरीकम्-पुण्डरीकं-धवलकमलं, वरञ्च तत्पुण्डरीकं वरपुण्डरीकं धवलकमलप्रधानं, पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेत्युपमितसमासे पुरुषवरपुण्डरीकम् , भगवतो वरपुण्डरीकोपमा च विनिर्गताऽखिलाऽशुभमलीमसत्वात् सर्वैः शुभानुभावैः परिशुद्धत्वाच्च, यद्वा यथा पुण्डरीकं पङ्काजातमपि सलिले वर्द्धितमपि चोभयसम्बन्धमपहाय निर्लेप जलोपरि रमणीयं संदृश्यते निजानुपमगुणगगबलेन सुरासुर-नर-निकर-शिरोधारणीयतयाऽतिमहनीयं परमसुखाऽऽस्पदश्च भवति ऐसे चतुर्विध संघरूप तीर्थ के कर्ता हैं ( सयंसंबुद्धे ) परोपदेश के विना स्वयमेव बोध को प्राप्त हुए हैं, इसलिये स्वयंसंबुद्ध हैं, (पुरिमुत्तमे) ज्ञानादिक अनन्तशुद्ध गुणों की जागृति-विशिष्ट होने से पुरुषों में उत्तम हैं, (पुरिससीहे ) रागद्वेषादिक शत्रुओं के पराजित करने में अद्वितीय-पराक्रम प्रदर्शित करने के कारण पुरुषसिंह हैं । (पुरिसवरपुंडरीए) पुरुषवरपुंडरीक समस्त प्रकार की मलिनता के अभाव से पुरुषों में श्रेष्ठ शुभ्र कमल जैसे हैं । यहां भगवान् को जो वरपुंडरीक की उपमा दी गई है उसका भाव यह है कि जिस प्रकार कमल कीचड से उद्भूत होने पर एवं जल में वर्द्धित होने पर भी इन दोनों (कीचड और जल) के संबंध से रहित होकर निर्लेप होता है, जल से भिन्न होकर उसीमें रहता हुआ भी जैसे કર છે. જેને પ્રાપ્ત કરીને જીવ સંસારરૂપી મહાસમુદ્ર પાર કરે છે એવા यतुर्विध संध३५ तार्थना ४ छ. ( सयंसंबुद्धे ) परेपहेशन पर पानी भेगे०४ माधने प्राप्त यो छ तेथी स्वयं समुद्ध छे. ( पुरिसुत्तमे ) ज्ञान मनन्त शुद्ध शुष्णनीति -विशिष्ट पाथी पु३षामा उत्तम छे. (पुरिससीहे) રાગ દ્વેષાદિક શત્રુઓને પરાજિત કરવામાં અદ્વિતીય પરાક્રમ બતાવવાના કાર थी ५३५-सिड छे. ( पुरिसवरपुंडरीए) ५३५१२ री-समस्त ४२नी મલિનતાના અભાવથી પુરૂષોમાં શ્રેષ્ઠ શુભ્ર કમલ જેવા છે. અહીં ભગવાનને જે વરપુંડરીકની ઉપમા આપેલી છે તેને ભાવ એ છે કે જે પ્રકારે કમલ કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે તેમજ જલમાં વધતું જાય છે છતાં પણ એ બને ( કીચડ અને જલ)ના સબંધથી રહિત થઈને નિર્લેપ રહે છે. જલથી જુદા
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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