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________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे व्रतानि तानि तथोक्तानि, तथा- 'सीलगुणवरव्बयाई' शीलगुणवरव्रतानि शीलं चित्तसमाधिः गुणाः विनयादयः तैर्वराणि श्रेष्ठानि यानि व्रतानि तानि तथोक्तानि- 'सच्चजवन्वयई ' सत्यार्जवन्नतानि, तत्र-सत्यम्=मृषावादवर्जनम् , आर्जवम्-मायावर्जनम् , तपाणि यानि व्रतानि तानि तथोक्तानि, तथा'नरगतिरियमणुयदेवगतिविवज्जगाई' नरकतिर्यामनुज देवगतिविवर्जकानिनरकतिर्यङ्मनुजदेवाभिधाश्चतस्रोगतीविवर्जयन्ति मोक्षगतिमापकत्वेन यानि तानि तथोक्तानि, तथा- 'सव्वनिणसासगगाई सर्वजिनशासनकानि सर्व जिनैः शिष्यन्ते =उपदिश्यन्ते यागि तानि तथोक्तानि, तथा-'कम्मरयवियारगाई' कमरजोविनाम संयम है, इसमें प्रवृत्त साधु के नवीन कर्मों का आगमन रूक जाता है अर्थात् नबोन कर्मों के आस्रव का निरोध होना यहि इस संयम ना फल है। इसलिये ये संवरद्वार तपसंयम रूप महाव्रत हैं। तथा ये संवरद्वार-(सीलगुणवरव्ययाइं) शील गुगवर व्रतरूप हैं-चित्त की समाधि का नाम शील है, विनय आदि का नामगुण है । इनसे श्रेष्ठ जोबत हैं तदूप ये संवर द्वार हैं । (सच्चजवव्यायाइं) सत्य-मृषावादका परित्याग, आर्जव-माया कात्याग, इन रूप जो व्रत हैं तद्रपये संवरद्वार हैं। (नरगतिरियमणुयदेवाइविवजगाइ ) इनकी आराधना से आराधक जीव को मोक्षगति कीप्राप्ति होती है इसलिये ये संवर द्वार नरक, तिर्यश्च, मनुज्य और देव, इन चारों गतियों से अपने आराधक जीव को दूर कर देते हैं इसलिये ये नरक तियक मनुज देवगति विवर्जक हैं । ( सव्वजि णसासणग्गइं) इन संवरद्वारों का उपदेश अभीतक जितने भी जिन हो પ્રવૃત્ત થયેલ સાધુને નવાં કર્મોનું આગમન અટકી જાય છે. એટલે કે નવાં કર્મોને અસવને નિરોધ થવો એ જ આ સંયમનું ફળ છે, તેથી તે સંવરद्वा२ त५ सयभ३५ महावत छ. तथा ते सवा२-“ सीलगुणवरव्वयाई" શીલગુણવરવ્રત રૂપ છે-શીલ એટલે ચિત્તની સમાધિ, વિનય આદિ ગુણ કહેपाय छ, तमना १ श्रे४२ व्रता छ ते ४२ना ने सव२६॥२ छे. “सच ज्जवब्बयाई" सत्य-भूषावाहने। परित्याग, सा-भायाने त्याग, से प्रश्न २ व्रतो छ ते ते प्रान ते सव२वार छ. “ नरगतिरियमणुयदेवाइविवज्जगाई" तेमनी माराधनाथी मा२५४ ने मोक्षगति प्राप्त थाय छ તેથી તે તે સંવરદ્વાર પિતાની આરાધના કરનાર જીવોને નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવ એ ચારે ગતિમાં જતાં રોકે છે, તેથી તેઓ નરક, તિર્યચ. મનુધ્ય અને દેવગતિના વિવર્જક છે. શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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