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________________ ३७२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे णादिलक्षणैः कर्मभिर्बद्धाश्च ये ‘सत्त' सत्त्वाः-माणिनस्तथा 'कड्रिज्जमाण' कृष्यमाणाः कृष्यकर्मवन्धनेन रज्जुबद्धकाष्टमिव नरकं प्रत्याकृष्यमानाः निरयतल' नरक एव तलं-पातालं ‘दुत्त' तदभिमुखं 'सण्ण' सन्नाः नरकरूपपातालगमनाभिमुखत्वात् खिन्नाः तथा ' विसण्ण' विषण्णाश्च ' शोकातिशयं प्राप्ताः ये प्राणिनस्तै बहुलो यः स तथा तम् । तथा 'अरइरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं ' अरतिरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वशैलसंकटं = तत्र-अरतिः = धर्मेष्वरुचिः रतिः-विषयेषु रुचिः भयं=इहलोकादि सप्तभयानि विषादः अनिष्टसंयोगजनितदुःखं शोकः इष्टवियोगजनितदैन्यं मिथ्यात्वं च कुदेवकुगुरुकुधर्मश्रद्धालक्षणमित्येतान्येव शैलाः पर्वतास्तैः सङ्कटः विषमो यः स तथा तम् , अरत्यादि और इन उपहारों से इसमें (गहियकम्मपडिबद्धसत्त) ज्ञानावरण आदि कर्मो से बद्ध प्राणी गृहीत बने हुए हैं। तथा ( कङ्किज्जमाण) पूर्वकृत कर्मबंधन के द्वारा रज्जु बद्ध काष्ठ की तरह यहां वह प्राणिवर्ग नरक की और खेचा जा रहा है और (निरयतलदुत्त) नरकतक की ओर गमन करने में सन्मुख होनेकी वजह से यहां वह प्राणीवर्ग (सण्णविसण्णबहुलं) सन्न-खिन्न, एवं विषण्ण शोकातिशय को प्राप्त हो रहा है । तथा (अरइरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं ) (अरइ) अरतिधर्ममें अरुचि, (रइ) रति-विषयों में रुचि, (भय) इहलोकभय, परलोकभय आदि सात भय, (विसाय) विषाद-अनिष्ट संयोग जनित दुःख, (सोग) शोक-इष्ट वियोग जनित दैन्यभाव, (मिच्छत्त) मिथ्यात्वकुगुरु, कुदेव और कुधर्म की श्रद्धा, ये ही सब इस संसारसमुद्र में (सेल) पर्वत जैसे हैं सो इन पर्वतोंसे यह (संकडं) विषम बना हुआ है। ७५४२ जय सन्तु विशेष गरेर छ भने ते ७५४ाथी तेमा " गहियकम्भः पडिबद्धसत्त" ज्ञाना१२९५ माहि थी मधायेत प्राणी स५४ायेद छे. तथा “ कड्ढिज्जमाण" पूर्व ४२८i ४ी २, २४थी मांधेसा ४४नी म त प्राणीशा न२४नी त२५ यार। छ, भने “निरयलदुत्त ” न२४ त२३ गमन ४२वाने मभिभुण डावाने ॥२२ ते प्राणीस“सण्णविसण्णबहुलं" भिन्न मन अतिशय ॥ युक्त 25 वां छे. तथा “ अरइ-रइभय-विसाय-सोगमिच्छत्त सेलसंकड” “ अरइ" A२ति- भां मरुथि, “इ” २ति-विषयोमा २ति, "भय" मान लय, ५२सानो मय मा सात सय, "विसाय" विषामनिष्ट सयोग भनित दुःम “ सोग" -ट वियोगनित हैन्यमा, " मिच्छत्त" मिथ्यात्५. शुरु, फुव मने उधमनी श्रद्धा, २. मधु ॥ संसारसारमा “सेल" ५ त छ, से ताथी ते "सकडं" विषम શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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