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________________ सुदशिनो टोका अ० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३६७ वायुप्रवर्द्धमानाशातृष्णादिरूपाऽस्ताघपातालयुक्तमित्यर्थः । तथा-'कामरइरागदोस बंधणबहुविहसंकप्पविउलदगरयरयंधयारं ' कामरति-रागद्वेष-बंधन-बहुविधसंकल्पविपुलदकरजोरयान्धकारम् , तत्र -कामरतिः = शब्दादिष्वभिरुचिः, रागः = अनुकूलविषयेषु प्रीतिः, द्वेषः = तेष्वेवप्रतिकूलेष्वप्रीतिश्चेत्येतान्येव बन्धनानि बन्धकारणानि तथा बहुविधाश्च संकल्पा:-मनः संकल्पा इत्येतेषां द्वन्द्वः ते कामरत्यादय एव विपुलदक रजांसि-विस्तीर्णजलकणिकाः तेषां यो रया वेगस्तद् रूपोऽन्धकारो यत्र स तथा तम् । कामरत्यादिरूपजलकणिका वेग समुत्पन्नान्धकारयुक्तमित्यर्थः । पुनः कीदृश ? मित्याह-' मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुच्छलंतबहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणियं' मोहमहावर्तभोगभ्रमद्गुप्यदुच्छलगहुगर्भवासप्रत्यवनिवृत्तप्राणिकम् , तत्र-मोहमहावत्त ' मोहमहावर्तः मोह एव महानाभोग करने की वान्छारूप ( पायालं ) पाताल से यह युक्त है, तथा ( कामरइरागदोस बंधण वहुविहसंकप्पविउलदगरयरयंधयारं ) ( कामरइ) शब्दादिक विषयों में अभिरुचिरूप कामरति, (राग ) अनुकूल विषयों में प्रीति रूप राग, एवं (दोस ) प्रतिकूल शब्दादिविषयों में अप्रीति द्वेष, जो (बंधण ) बंध के कारण हैं, तथा ( बहुविह संकप्प ) बहुत प्रकार के जो मनः संकल्प हैं ये ही सब इस संसारसमुद्र में (विउल दगरय ) वीस्तीर्णदकरज-जलकण हैं। इनका ( रबंधयारं ) वेगरूप अंधकार इसमें सदा व्याप्त हो रहा है अर्थात्-कामरत्यादिरूप जलकणों के वेगों से समुत्पन्न अंधकार से यह युक्त बना हुआ है ( मोह महावत्त-भोगभममाणगुप्पमाणुच्छलंतबहुगब्भवास पच्चोणियपाणियं ) तथा ( मोहमहावत्त) मोहरूप महान् आवत्त इसमें उठ रहे हैं। और इन आवों में जहां पिपासा-प्राप्त याना ४२पानी ४२७१-३५ " पायाल" पायात युद्धत छ, तथा “ कामरइरागदोसबधणबहुविहसंकप्पविउलदगरयरयंधयार" "कमरड" हि विषयोमा अभिरुयि३५ भति, “ राग" मनु विषयोभी प्रीति३५ २, अन “दोस" प्रति शहा विषयोमा मप्रीति३५ द्वेष, २ "बधण” धननां ॥२॥ छ, तथा “बहुविहसंकप्प” भने प्रा२ना २ भनास ४८५ो छे थे. मधा २॥ संसार सागरमा "विउलदगरय" विस्ती मिन्दुमा छे. "रयंधयार" तेमना वेग३५ माथी ते व्यास છે. એટલે કે કામરતિ આદિ રૂપ જળકણોના વેગથી ઉત્પન્ન થયેલ અંધકારથી ते युस्त छ. “मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुच्छलतबहुगब्भवासपच्चोणियत्तपाणियं " तथा " मोहमहावत्" भाड३५ मा भणे ते उत्पन्न थय॥ अरे छे. मने ते मावतमिi-मम यां " भोग" विषय-लोग "भम શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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