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________________ ३१६ प्रश्रव्याकरणसूत्रे , एवं शीलाः ' वसण भुदरसु' व्यसनाभ्युदयेषु हरणबुद्धयः = व्यसनेषु = रोगाद्यव• स्थायां राजादिकृतोपद्रवेषु च अभ्युदयेषु - विवाहादिमहोत्सवेषु 'हरणबुद्धी हरणबुद्धयः ' विगव्व ' वृका इव = ' भेडिया' इति प्रसिद्धा नखधारिणः श्वापद जन्तु विशेषा : इव 'रुहिरमहिया ' रुधिरमहिताः = रुधिरस्य = रुधिरपानस्य महः = उत्सवः रुधिरमहः, स जातो येषां ते तथा - रुधिरचूषणे तत्पराः, ' परे ति ' परियन्ति = पर्यटन्ति सर्वत्र भ्रमन्ति । कथं भूतास्ते इत्याह- ' नरवइमज्जा - य मक्कता' नरपति मर्यादामतिक्रान्ता = राजाज्ञा वहिर्वर्तिनः ' सज्जणजणदुगुंडिया' सज्जनजनजुगुप्सिताः सत्पुरुषैर्निन्दिताः 'सकम्मेहिं ' स्वकर्मभिः = अदत्तादानरूपैः ' पावकम्मकारी ' पापकर्मकारिणः = चौर्यादिपापकर्म कारकाः 'असुभपरि या अशुभ परिणताच = शुभपरिणामवर्जिताः ' दुक्खभागी ' दुःखभागिनः = छिद्र प्रासकर बात की बात में मार डालते है (वसणभुदएस) रोगादिक अवस्थारूप तथा राजादिकृत उपद्रवकृत व्यसन के समय पर, अथवा विवाह आदि रूप महोत्सव के अवसर पर भी ये (हरणबुद्धी) अपना कार्य कर दिया करते हैं । (विगव्व) भेडिया की रुधिर चूषने में तत्परता रहती है ईसी प्रकार ये चोर जन भी ( रुहिर महिया ) पर के खून चूसने में तत्पर रहते हुए (पति) सर्वत्र घूमते हैं । ( नरवइमइक्कता ) राजा की आज्ञा का सदा ये उल्लंघन किया करते हैं । (सज्ज - णजणेदुगुं छिपा ) सज्जन पुरुषों की निंदा करने में इन्हें आनंद मिलता है, अथवा इनके इस कर्म की सज्जन पुरुष निंदा करते हैं । ( सकम्मेहिं ) अदत्तादानरूप अपने कर्मों से ये (पावकम्मकारी ) पापकर्मकारी पापकर्म करने वाले वे चोर (असुभपरिणयाय) अशुभ आत्मा परिणति 9 ધનનું રહસ્ય જાણીને જોતજોતામાં મારી નાખે છે, “ वसणब्भुद एसु" " रोगादि અવસ્થામાં, તથા રાજાકૃિત ઉપદ્રવ રૂપ સ’કટને સમયે, અથવા વિવાહ આદિ महोत्सवने प्रसगे या ते " हरणबुद्धी ” पोतार्नु परघन हरणुनु' नृत्य य अरे छे. “विगव्व " वरुनी प्रेम-मेटले प्रेम वरु सोही यूसवाने तत्पर होय छे तेभ और पशु " रुहिर महिया " मन्यनु' बोही यूसवाने तत्पर थर्ध ने " परे ति" सर्वत्र भ्रम उरे छे. " नरवइमज्झाय मइकंता ” राजनी भाज्ञानु सहा बंधन उरे छे; " सज्जणजणे दुगुंछिया " સજ્જનાની નિંદા કરવામાં तेभने भल आवे छे, अथवा ते दुष्कृत्यानी सन्ननो निहा उरे छे. “ सक्कमेहिं " अदृत्ताहान-थोरी ३५ पोतानां मेथी ते " पावकम्मकारी " पायत्यो अरनारा ચારે 66 असुभपरिणयाय " अशुल आत्मपरिशुति-लावधी युक्त भने छे. શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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