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________________ २९३ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ७ सङ्ग्रामवर्णनम् विकृता-क्रोधावेशेन विचित्ररूपः गाढः मर्मभेदी दत्तः शत्रुभिः प्रहारो येषां ते तथा, अत एव मूच्छिता: मूर्छा प्राप्ताः, लुठन्तः = भूमौ विलुठन्तः, विह्वलाः= व्याकुलाश्च तेषां विलापाः=' हा हंतावयमि'-त्याद्याक्रन्दशब्दाः, तैः करुणो= दयाजनको यः स तथा तत्र, पुनः कीदृशे ? इत्याह-' हयजोह-भमंत तुरगउद्दाममत्तकुंजरपरिसंकियजण-णिव्वुकछिण्णज्झय-भग्ग-रहवर - नट्टसिरकरिकलेवराकिण-पडियपहरण-विकिन्नाभरणभूमिभागे' हतयोधभ्रमत्तुरङ्गोदाममत्तकुञ्जरपरिशतिजननिमूलछिन्नध्वजभग्नरथवरनष्टशिरः करिकलेवराकीर्णपतितपहरणविकीर्णाभरणभूमिभागे' तत्र-'हयजोहभमंततुरग'-हतयोधभ्राम्यत्तुरगः-हताः मृता योधाः अश्वारोहा सवार इति भाषा प्रसिद्धाः येषां, तथाभूता भ्राम्यन्तः इतस्ततो धावन्तः तुरगाः अश्वा यस्मिन् स तथा, 'उद्दाममत्तकुंजरपरिसंकियजण'-उद्दाममत्तकुञ्जरपरिशङ्कितजनः--उदाममत्तकुञ्जरेभ्यो निरङ्कुशमदोन्मत्तहस्तिभ्यः परिशकिताः वधशङ्काकुलाः जना यस्मिन् स तथा, 'णिब्बुकछिण्णज्झयभग्गरहवर 'निर्मूलछिन्न ध्वजभग्नरथवराः-तत्र निर्मूलाः मूलरहिताः ध्वजदण्डेभ्यो निस्मृताः से विचित्ररूप गाढ मर्म भेदी प्रहार शत्रुओं द्वारा दिया गया है और इसीसे जो (मुच्छिय ) मूर्छा को प्राप्त होकर ( रुलंत ) भूमि पर इधर से उधर लोट रहे हैं एवं (विन्भल ) व्याकुल होकर (विलाव) "हा मैं मारा गया" इत्यादिरूप से विलाप कर रहे हैं ऐसे योद्धाओं के विलापों से जो (कलुणे ) दयाजनक बना हुआ है तथा जो ( हयजोहभमंततुरग ) अपने सवारों के मर जाने से इच्छानुसार इधर उधर घूमते हुए घोड़ों से युक्त हो रहा है, तथा जहां ( उद्दाममत्तकुंजरपरिसंकियजणे ) उत्कट मदवाले हाथियों से, वध की शंका के भय से मनुध्य व्याकुल हो रहे हैं (णिब्बुक्कछिण्णज्झयभग्गरहवरे ) जहां निर्मूल दंडा रहित और छिन्न-फटी हुई ध्वजाएँ और भग्न हुए श्रेष्ठ रथ पड़े हैं આવેલા શત્રુઓ દ્વારા વિચિત્ર રીતે ભયંકર મર્મભેદી પ્રહાર કરાય છે અને તે आरणे या "मुच्छिय” भूरविश ने “रुलंत" भान ५२ माम तेम सागोटे छ भने " विमल " यान मने छ, 'विलाव " अरे ! મને મારી નાખ્યો ઈત્યાદિ પ્રકારે વિલાપ કરે છે, એદ્ધાઓના વિલાપથી જે "कलुणे' हयान भनेर छे, तथा रे "हयजोहभमंततुरंग' पोताना सवारी भरी पाथी छानुसार माम तेभ घूमता घोडामाथी युद्धत छ, तथा न्यो "उद्दामम. त्तकुंजरपरिसंकियजण" महोन्मत्त हाथीमाद्वा२। ४२२।४ पाना लयथी भाणुसे। व्याण मनेा छ, “णिब्बुक्कछिण्णज्झयभग्गरहवर" orii नि । २हित શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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