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________________ १९८ प्रश्रव्याकरणसूत्रे अयमात्मा अकर्ता-पुण्यपापादोनाम् । वेदकः=भोक्ता पुण्यपापकर्मफलस्य पतिबिम्वोदयन्यायादिति भावः, तथा-'सुकयस्स' सुकृतस्य-पुण्यस्य 'दुक्कयस्स' दुष्कृतस्य पापस्य च ' सव्वहा ' सर्वथा' 'सव्वहिं ' सर्वत्र सर्वस्मिन् काले 'कारणाणि' कारणानि=निमित्तभूतानि 'करणाणि' करणानि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि, नायमात्मा । अलीकताचास्य संसार्यात्मनो मूर्तत्वेन परिणामित्वेन कर्तृत्वोपपत्तेः तथा — णिच्चो' नित्य इति केचित् , तदपि न युक्तम् , एकान्तनित्यत्वे सुख यह कथन भी मिथ्यारूप ही है, क्यों कि इसे सत्य मानने पर जो सकललोक के प्रत्यक्षभूत भेदमूलक धर्म अधर्म आदिका व्यवहार होता है उसके उच्छेद का प्रसंग प्राप्त होता है। इसी तरह जो आत्मा को एकान्तरूप से अकर्ता मानते हैं ऐसे सख्यिो की यह मान्यता है कि (अकारगो वेदगोय ) यह आत्मा पुण्यपाप आदिका अकर्ता है, और उनके फल भूत सुख दुःख आदिका (१) 'प्रतिबिम्बोदयन्यायसे भोक्ता है। तथा कोई कहते हैं कि (सुकयस्स दुक्कयस्स य सव्वहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि ) पुण्य और पाप के सर्व प्रकार से सर्वकाल में का निमित्तभूत चक्षुरादि इन्द्रियां हैं । आत्मा नहीं है, यह उनकी मान्यता असत्य है, क्यों कि संसारी आत्मा कथंचित् मूर्तिक है और परिणामी है इसलिये कर्तृत्व और भोक्तृत्व बन जाता है ! सर्वथा अमू તે કથન પણ મિથ્થારૂપ જ છે, કારણ કે તેને સત્ય માનવામાં આવે તે સમસ્ત જગતમાં નજરે પડતા મૂળભૂત ભેદવાળે ધર્મ અધર્મ આદિનો જે વ્ય. વહાર થાય છે તેનું ખંડન થવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. એ જ રીતે આત્માને એકાન્તરૂપે અકર્તા માનનાર સાંખ્ય મતવાદીઓની એવી માન્યતા છે है “ अकारगो वेदगोय” 241 2मात्मा धुन्य ५५ माहिती प्रा नथी, भने तमन ३३५ सुभ दुः५ माहिना “ प्रतिबिम्बोदय न्यायथी" alsu छे. तथा सो ४ छ " सुकयस्स दुक्कयस्स य सव्वहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि" पुन्य मने पना सर्व प्रा२नो ४ सणे यात्मा नही ५५५ ચક્ષ આદિ ઈન્દ્રિય છે. તેમની તે માન્યતા અસત્ય છે, કારણ કે સંસારી આત્મા કેટલાક પ્રમાણમાં મૂર્તિક છે અને પરિણામી છે, તેથી તેમાં કતૃત્વ અને १ प्रतिबिम्बोंदय न्याय का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्फटिकमणि के साथ जिस वर्णका संयोग होगा स्फटिक मणि वैसा ही वर्णका दीखने लग जाता है । ૧પ્રતિબિદય ન્યાયનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ રફટિક મણીની સાથે જે રંગને સંગ થશે, એવા જ રંગને સ્ફટિક મણી દેખાશે. શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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