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________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ अलीकवचननिरूपणम् १६७ =क्रूरं यद्वा-निशंसं-निर्गता शंसा प्रशंसा यस्मात्तत्तथा-प्रशंसावर्जितमित्यर्थः, 'अप्पच्चयकारगं' अप्रत्ययकारकम्-विश्वासनाशकम् , ' परमसाहुगरहणिज्ज' परमसाधुगर्हणीयं = परमा उत्कृष्टाचते साधवस्तीर्थकरगणधरादयस्तैगर्हणीयं = निन्दनीयं, 'परपीलाकारंग' परपीडाकारकं, 'परमकिण्हलेस्ससहियं' परमकृष्णलेश्यासहितं-परमा उत्कृष्टा कृष्णा मलिना लेश्या आत्मपरिणतिः, तया सहितं 'दुग्गइ विणिवाय विवडणं' दुर्गतिविनिपातविवर्धनं दुर्गतौ नरकनिगोदादौ यो विनिपात: निपतनं तस्य विवर्धनं प्रवर्धकं ' भवपुणब्भवकरं' भवपुनर्भवकरं पुनः पुनर्जन्मकारकं 'चिरपरिचियं ' चिरपरिचितं-चिरात् अनेकजन्मजन्मान्तरात् परिचितम् = अनादिमिथ्यात्वाविरतिप्रवाहविच्छेदा - भावात् ' अनुगतं भवपरक्रूर है, अथवा निःशंस इस भाषण को कोई भी प्रशंसा नहीं करता है इसलिये यह प्रशंसा रहित है, ( अप्पच्चय कारगं) यह बोलने वाले के विश्वास का नाशक होता है। (परमासाहुगरहणिज) परमसाधु जो तीर्थकर गणधर आदि हैं उनके द्वारा यह गहणीय-निंदनीय कहा गया ले। (परपीलाकारगं) इस वचन से पर को पीडा होने के सिवाय और कुछ नहीं होता है। (परमकिण्हलेस्ससहियं ) इसके सेवन करने वालों की लेश्या-आत्मपरणति अत्यंत मलिन रहा करती है। ( दुग्गइविणिवायविवडणं ) निगोद आदि दुर्गतियों में यह जीव के पतन का विशेष रूप से वर्धक होता है। (भवपुणभवकरं ) इसके बोलने वाले जीवों का पुनः पुनः संसार में जन्म होता रहता है । ( चिर परिचियं ) अनेक जन्म जन्मान्तर से यह परिचित रहता है-अर्थात्-जन्म जन्मान्तरों में इसका संस्कार साथ रहे आने के कारण अनादि काल से लगे से लापानी प्रशस॥ ४२तु नथी ते ॥२७ ते प्रशस. २हित छ, “ अप्प. चयकारगं" ते मोसनार प्रत्येन। मन्यना विश्वास नाशत्ता छ. “परमसाहुगरहणिज्ज" ५२म साधु तीथ ४२ गधर माहिछे, तेमना द्वारा ते ४ीय-निनीय मतावामा मावेश छ. “ परपीलाकारगं" ते वयनथी ५२ने पी। थवा सिपाय ilaj ४५५ यतु नथी. " परमकिण्ह लेस्ससहियं " तेनु सेवन ४२नारनी सेश्या-मात्मपरिणति सत्य त भलिन २॥ ४२ छ- “ दुगाइ विणिवाय विवड्ढणं "२४, निगा या गतियोमा छपने पावाने माटे ते विशेष३थे 4 डाय छे. “ भवपुणब्भवकर" ते असत्य मोसना२ वान ३२॥ शन ससारमा म देवा ५४ छ. “चिरपरिचिय" मने म. भातशथी ते પરિચિત રહે છે. એટલે કે જન્મ જન્માંતરમાં તેના સંસ્કાર સાથે રહેતા શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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