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________________ ममेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.८ सू०१ नैरयिकोत्पत्तिनिरूपणम् करणे हेतुं दर्शयत्राह-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं चउसामइओ विग्गहो' नवर चतुः सामायिको विग्रहः एकेन्द्रियजीवानां विग्रहगतिः चतुःसमयात्मिका भवतीति एतद्वैलक्षण्यमवगन्तव्यमिति । 'सेसं तं चे' शेषं तदेव विग्रहगतिव्यतिरिक्त मन्यत् सर्वम् इतरजीववदेव ज्ञातव्यमिति । 'सेवं भंते ! 'सेवं भंते ! ति जाव बिहरहे' तदेवं भदन्त ! तदेवं इति यावद्विहरति, हे भदन्त, भवाद्भवान्तर मुत्स. पेतां जीवानां विषये यद्देवानुपियेण कथितं तत् सर्वम् एवमेव-सर्वथा सत्यमेव इति कथयित्वा गौतमो भगवन्तं वन्दते नमस्पति वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेमतपसा आत्मानं भावयन् विहरतीति भावः ॥०१॥ इति पञ्चविंशतितमेशते अष्टमोद्देशकः समाप्तः में जाने में है । परन्तु जो पृथकरूप से इनका सूत्र कहा गया है वह इनकी विग्रहगति 'नवरं च उसमहओ विग्गहों' चार समय की होती है इस विशेषता को लेकर कहा गया है। 'सेसं तं चेव' वाकी का सब कथन इनके सम्बन्ध में नारक श्रादि जीवों के सम्बन्ध में जैमा कथन किया गया है वैसा ही है ऐसा जानना चाहिये । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरई' हे भदन्त ! एक भव से दूसरे भव में जाने वाले जीवों के सम्बन्ध में जैसा कथन आप देवानुप्रिय ने किया है वह सब आप्त वाक्य सर्वथा प्रमाण होने से बिलकुल सत्य ही है। इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया। बन्दना नमस्कार कर फिर वे तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये ॥१०॥ अष्टम उद्देशक समाप्त ॥२५-८॥ समधी सूत्रमा ! डेस छ, त मनी विग्रहगति 'नवर चउसमइओं विग्गहो' यार समयनी थाय छ, । विशेष५९ने सन . 'सेस त चेव' माडीनुसणु ४थन ना२४ विगैरेन। समयमा २ प्रमाणे उस छ, એજ પ્રમાણે આ કથનમાં પણ સમજવું. 'सेव भंते ! सेव भंते ! ति जाव विहरइ' सपन मे मथी मीन ભવમાં જવાવાળા જીના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણે કથન કરેલ છે, તે તમામ કથન આપ્તવાકયરૂપ હોવાથી સર્વથા પ્રમાણ રૂપ છે. હે ભગવન આ૫ દેવાનુપ્રિયનું કથન સર્વથા સત્ય છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વંદના કરી તેઓને નમસ્કાર કર્યા વંદના નમસ્કાર કરીને તે પછી તેઓ તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા થકા પિતાના સ્થાન પર બિરાજમાન થયા. સૂ૦ ૧ આઠમે ઉદેશક સમાપ્ત ર૫-૮ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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