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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०२ रत्नप्रभादिपृथिव्यपेक्षया सं०नि० ६१७ 'जस्थ णं भंते' यत्र प्रदेशविशेषे खलु भदन्त ! 'एगे बढे संठाणे जवमझे' एकं वृत्तं संस्थानं यवमध्यं यवाकारमित्यर्थः 'तत्थ परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा असंखेज्जा अर्णता' तत्र-यवाकारनिष्पादकवृत्तसंस्थानप्रदेशे परिमण्डलसंस्थानानि किं संख्येयानि असंख्येयानि अनन्नानि वेति प्रश्नः, उत्तरमाह-एवं चेव' एवमेव यथा यवाकारनिष्पादकपरिमण्डलसंस्थानप्रदेशे तदन्यानि परिमण्डलसंस्थानानि अनन्तानि विद्यन्ते तथैव यवाकारनिष्पादकवृत्तसंस्थानपदेशेऽपि परिमण्डल. संस्थानानि अनन्तान्येव भवन्तीति । 'वटा संठाणा एवं चेव' वृत्तानि संस्थानानि एवमेव यवाकारनिष्पादकवृत्तसंस्थानपदेशे तदन्यानि वृत्तानि संस्थानानि नो संख्येयानि नो असंख्येयानि किन्तु अनन्तान्येव भवन्ति इति भावः । एवं जाव आयया' एवं यावत् आयतानि यावत्पदेन व्यखचतुरस्रयोहणं भवति तथा -'जस्थ णं भंते ! एगे बढे संठाणे जवमज्झे' इस सूत्रद्वारा गौतम ने प्रभु श्री महावीरस्वामी से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! जहां पर एक यवाकार वृत्तसंस्थान है वहां पर परिमंडल संस्थान कितने हैं ? क्या वे वहां संख्यात हैं अथवा असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? इसके उत्तर में कहते हैं-'एवं चेव' हे गौतम ! जिस प्रकार यवाकार निष्पादक परिमंडल संस्थान के प्रदेश में इससे अन्य और परिमंडल संस्थान अनन्त कहे गये हैं इसी प्रकार यवाकारनिष्पादक वृत्तसंस्थान के प्रदेश में इससे अन्य और भी वृत्तसंस्थान अनन्त होते हैं । इसलिये 'वटा संठाणा एवं चेव' वहां पर वृत्तसंस्थान अनन्त जानना चाहिये, अतः वे वहां पर न संख्यात होते हैं और न असंख्यात होते हैं। 'एवं जाव आयया इसी प्रकार से यह भी समझना चाहिये कि जिस प्रदेश में एक यवा 'जत्थ णं भंते ! एगे वढे सठाणे जबमज्झे' 0 सूत्रद्वारा गौतम स्वाभीये પ્રભુ શ્રી મહાવીર સ્વામીને એવું પૂછયું છે કે હે ભગવન જ્યાં એક યુવાકાર વૃત્તસંસ્થાન છે, ત્યાં પણ પરિમંડલ સંસ્થાન કેટલા છે? શું તેઓ સંખ્યાત છે? અથવા અસંખ્યાત છે? કે અનંત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે छ 'एव चेव' गीतम! २ प्रमाणे या४।२ नि०५६५ परिभस सस्थान પ્રદેશ પણુમાં તેનાથી બીજા અન્ય પરિમંડલ સંસ્થાન કરતાં અનંત કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે યવાકાર નિષ્પાદક વૃત્ત સંસ્થાનના પ્રદેશમાં તેનાથી બીજા अन्य वृत्त सथान ५४४ मन त य छे. तथी 'वट्टा सठाणा एव चेव' त्यां वृत्तसंस्थान सनत सभा'. ते सध्यात, असभ्यात तु नया. एवं जाव आयया' थे शते थे ५५ सभा २ प्रदेशमा से यार શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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