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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२४ उ.१२ सू०१ पृथ्वीकायिकानामुत्पातनिरूपणम् १७ पुनरपि पृथिव्यामेव उत्पद्यते एवं क्रमेण कियत्कालपर्यन्तं पृथिवीं सेवेत कियकालपर्यन्तं च पृथिवीतः पृथिव्यामेव गमनागमने कुर्यादिति प्रश्नः । भगवानाह -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई भवादेशेन-भवमकारेण भवापेक्षयेत्यर्थः द्वे भवग्रहणे भवापेक्षया द्वौ भवौ भवतः 'उक्कोसेणं असखेज्जाई भवग्गहणाई' उत्कर्षेणासंख्येयानि भवग्रहणानि । कालादेसेणं" कालादेशेन-कालपकारेण कालापेक्षयेत्यर्थः 'जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता' जघन्येन द्वे अन्तर्मुहत्ते 'उक्कोसेणं असंखेनं काले' उत्कर्षेण असंख्येयं कालम 'एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं कालं याव कुर्यात् उपरिपदर्शितजघन्योत्कृष्ट कालपर्यन्त पृथिवीकायं सेवेत तथा-एतावत्कालपर्यन्तमेव पृथिव्यां गमनागमने कुर्यात् सोऽयं कायसंवेधः२० । इति प्रथमो गमः १ । अथ द्वितीयगमं दर्शयन्नाह-'सो चेव' इत्यादि, 'सो चेत्र जहन. कालठिइएसु उववन्नो' स एव-पृथिवीकायिकजीव एव जघन्यकालस्थिकितने काल तक वह पृथिवी से पृथिवी में ही गमनागमन किया करता है ? इसके उत्तर प्रभु गौतम से कहते हैं-'गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाई भवग्गहणाई' हे गौतम! भवकी अपेक्षा वह जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने तक और उत्कृष्ट से असंख्यात भवों तक तथा 'कालादेसे०' कालकी अपेक्षा वह जघन्य से दो अन्तर्मुहर्त तक और 'उक्कासेण०' उस्कृष्टसे 'असं. खेज्जं कालं' असंख्यात काल तक पृथिवीकायका सेवन करता है। और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता है, ऐसा यह काय संवेध २० । इस प्रकार का यह कथन प्रथमगम रूप है। अब सूत्रकार द्वितीय गम का कथन करने के लिये 'सो चेव जहनकालाष्ट्रइएसु उववन्नो' ऐसा सूत्र कहते हैं-इसमें यह प्रकट किया गया छे है-'गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई' उक्कोसेणं असंखेज्जाइं भव. गहणाई' गौतम! अपनी अपेक्षाय धन्यथी बलवान अहए। तां सुधा मन थी ज्यात सवा सुधी तथा 'कालादेसेणं०' नी म. क्षात न्यथी म भतभत सुधी मन 'उकोसेणं.' 68थी 'असं. खेज्ज कालं.' असभ्यात ४ सुधी पृथ्वीया सेवन रे छे. मने એટલા જ કાળ સુધી તે તેમાં ગમનાગમન કરે છે, એ પ્રમાણે આ કાયસં. વેધ કહ્યો છે. ૨૦ આ રીતે આ કથન પહેલા ગમ રૂપ છે. वे सूत्रहार भी मनु थन ४२१। भाट 'सो चेव जहन्न कालदिइएस उववन्ना' से प्रभारी सूत्र ४ छ मा सूत्रथी से मतायु छ न त શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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