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________________ प्रमेयवन्द्रिका टोकाश०१८ उ०५सू०३ नारकादीनामायुष्कादिप्रतिसंवेदनानि. ५१ एवमेव असुरकुमारादिवदेव ज्ञातव्यम् वैमानिकोऽपि च्यवनसमये वैमानिकायुष्क मनुभवन् यत्रोत्पत्तियोग्यो भवति तद्भवसंपन्ध्यायुष्कमुदयाभिमुखं करोतीति । 'नवरं पुढवीकाइए पुढवीकाइएसु उववज्जइ' नवर केवलम्-पृथिवीकायिको जीवः पृथिवीकायिकेषु उत्पद्यते 'पुढवीकाइयाउयं पडिसंवेदेइ' पृथिवीकायिकायुक पतिसंवेदयति तथा 'अन्ने य से पुढवीकाइयाउए पुरओ कडे चिटई' अन्यच्च स पृथिवीकायिकायुष्क पुरतः कृतं तिष्ठति वैलक्षण्यमेतदेव यत् पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकेषुत्पद्यते पृथिवीकायिकायुकमनुभवन् अन्यत् पृथिवीकायिकायुष्कमुदया. भिमुखी करोति । 'एवं जाव मणुस्सो सट्टाणे उपवाएयव्यो' एवं यावन्मनुष्यः स्वस्थाने उपपातयितव्यः, एवं यथा पृथिवीजीवस्य पृथिव्यामेवोत्पत्तिः कथिता एक पृथिव्यायुष्कमनुभवन् पृथिवीसम्बन्ध्ये वायुष्कान्तरम् उदयाभिमुखं करोति इस प्रकार का यह कथन वैमानिक देवों तक में भी जानना चाहिये। अर्थात् वैमानिकदेव भी च्यवनसमय में वैमानिक आयुष्क का प्रति. संवेदन करता हुआ जहाँ वह उत्पत्ति के योग्य होता है। उस भव सम्बन्धी आयु को उदयाभिमुख करता है । 'नवरं पुढवीकाइए पुढवी. काइएसु उववज्जई' पृथिवीकायिकजीव पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होता है। अतः वह 'पुढवीकाइयाउयं०' पृथवीकायिक संबंधी आयुष्क का प्रतिसंवेदन करता है तथा 'अन्ने य से पुढवीकाइयाउए' जिस दूसरी पृथिवीकायिक पर्याय में उसे उत्पन्न होना है उस पृथिवीकायिक पर्याय के आयु को वह उद्यामिमुख करता है । 'एवं जाव मणुस्सो सहाणे उपचा. एयव्यो' जैसा यह कथन पृथिवीकायिक जीव की दूसरी पृथिवीकायिक जीव में उत्पत्ति होने के सम्बध में किया गया है अर्थात् पृथिवीकायिक કથન વૈમાનિક દેવે સુધીમાં પણ સમજવું. અર્થાત્ વૈમાનિક દેવ પણ ચવવાના સમયે વૈમાનિક આયુષ્યનું પ્રતિસંવેદન કરશે, અને તેઓ જ્યાં ઉત્પન્ન થવા योग्य भने छ, ते म सधी आयुष्यने यामिभु५ ४रे छे. "नवरं पुढवी. काइएसु उववज्जइ" पृथ्वी यि ७१ qui suन्न थाय छ, रथी "पढवीकाइया उय" पृथ्वीयि समधी मायुप्यतुं प्रति वहन ४२ छे. तथा अन्ने य से पुढत्रीकाइ०" २ मा पृथ्वी5148नी पायमा तन उत्पन्न पार्नु छ, ते ५०14पायना आयुष्यने ते यामिभु५ ४३ छे. "एवं जाव मणुस्सो सट्टाणे उववाएयत्वो" से पृथ्वी थि24t wी वी1ि8 मां ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં જે પ્રમાણે આ કથન કરવામાં આવ્યું છે, અર્થાત પૃથ્વીકાયિક જીવ બીજા પૃથ્વીકાયિક ભવમાં ઉત્પત્તિ એગ્ય બને છે. તે તે શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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