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________________ ३२२ भगवतीसूत्रे कियत्पर्यन्तं तत्राह-'जात्र' यावत् उद्वर्तनापर्यन्तं वनस्पतिकायिकानां तेजस्कायिकवदेव ज्ञातव्यमिति । तेजस्कायिकापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह-'नवरं' इत्यादि । 'नवरं आहारो नियमं छदिसिं' नवरमाहारो नियमात् षदिशं षट्स्वपि दिक्षु नियमतो वनस्पतिकायिकानामाहारो भवति परन्तु इदमत्र विचारणीयं लोकान्त निष्कुटानि आश्रित्य त्रिदिगादेरेव आहारस्य तेषां वनस्पतिकायिकानां संभवात् अथवा बादरनिगोदानाश्रित्य नियमात् पदिशमित्यव सेयम् बादरनिगोदानां पृथिव्याश्रितत्वेन षदिगाहारस्यैव संभवादिति । स्थितिविषयेऽपि वनस्पतिकायिकानामितरापेक्षया वैलक्षण्यं दर्शयति-'ठई' इत्यादि । 'ठई जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं' यहां उक्त से अन्य और सब कथन तैजस्कायिक के जैसे ही है 'जाव उवहति यावत् उद्वर्तना तक जानना चाहिये परन्तु तैजस्कायिक के कथन की अपेक्षा से इनके कथन में जो अन्तर है वह आहार एवं स्थिति की अपेक्षा लेकर के है, यही बात 'नवरं आहारो नियमा छदिसिं' इस पाठ द्वारा प्रकट किया गया है। छहों दिशाओं में से नियम से वनस्पतिकायिक जीवों का आहार होता है। यहां तात्पर्य ऐसा है कि लोकान्त में जो निष्कुट है उनको आश्रित करके तीन दिशाओं में से ही उनका आहार संभवित होता है अथवा बादर निगोदों को आश्रित करके नियम से छहों दिशाओं में से इनका आहार होता है क्योंकि पादर निगोदों के पृथिव्याश्रित होने से छहों दिशाओं में से ही इनके आहार की संभावना है। स्थिति के विषय में भी बनस्पतिकायिकों की ४थन ४२४ायिनी रेभ 'जाव उव्वर्टेति' यावत् ता (नि:mg) सुधीमा સમજવું. પરંતુ તેજરકાયિકના કથનની અપેક્ષાએ આ કથનમાં જે અંતર છે. ते माहार भने स्थितिना अपेक्षा छे. थेपात 'नवरं आहारो नियमा રિ િઆ પાઠથી બતાવેલ છે. વનસ્પતિકાયિકોને છએ દિશાથી નિયમથી આહાર હોય છે. અર્થાત્ વનસ્પતિકાયિકે નિયમથી એદિશાએથી આહાર કરે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-કાન્તમાં જે નિષ્ફટ છે, તેને આશ્રય કરીને ત્રણ દિશાએથી જ તેને આહાર સંભવિત થાય છે. અર્થાત્ બાદર નિગેને આશ્રય કરીને નિયમથી એ દિશાએથી તેને આહાર થાય છે. કેમ કે બાદર નિગદ પ્રવ્યાશ્રિત હોવાથી એ દિશામાંથી તેને આહારની अमावना छ. स्थितिना विषयमा ५५ वन९५तियिोनी “ठिई' स्थिति 'जहन्नेणं०' न्यथा मे अन्तभुत नी छ, भने 'उकोसेण' उत्कृष्ट थी "अंतो. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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