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________________ - -- - - ३२० भगवतीसूत्रे व्यमितिमावः 'वाउकाइयाणं एवं चेत्र' वायुकायिकानाम् एवमेव, वायुकायिकजीवानां स्यादादिद्वाराणि सर्वापपि पृथिव्यादिवदेव ज्ञातव्यानि 'नाणतं नवरं चत्तारि समुग्घाया' नानात्वं भेदः नवरम्-अयं विशेषः चत्वारः समुद्घाताः, वायुकायिकानां चत्वारः समुद्घाताः पृथिव्यादीनां त्रयाणामपि आधास्त्रय एव समुदयानाः वायुकायिकानां तु वेदनाकषायमारणान्तिकवे क्रियाख्याश्चत्वारः समु. याता भवन्ति वायुकायिकजीवानां वैक्रियशरीरस्थ सद्भावादिति । 'सिय भंते ! स्याभदन्त । 'जाव चत्तारि पंच वणस्सइकाइया० पुच्छा' यावत् चत्वारः पश्चबनस्पतिकायिका जीना इति पृच्छा प्रश्नः हे भदन्त ! वनस्पतिकायिकाः द्वौ त्रयः चत्वारः पंच वा जीवाः एकीभूय साधारणमेकं शरीरं बध्नन्ति ततः पश्चात् आहविलक्षणता प्रकट की गई है उन बातों को छोडकर और सब समुद्धा. तादि द्वारों के कथन में समानता ही है। 'वाउक्काइयाण एवं चेव' वायुकारिक जीवों में स्थात् आदि द्वारों को लेकर जैसा कथन पृथिव्यादिकों में किया गया है वैसा ही है यदि पूर्व कथन की अपेक्षा वायु. काय के कथन में कोई अन्तर है तो वह समुद्घात द्वार को ही लेकर है क्योंकि वायुकायिक जीवों के चार समुद्घात होते हैं। पृथिवी आदिक जीवों के आदि के ३ समुदघात होते हैं वेदना, कषाय मारणान्तिक और किय ये चार समुद्घात वायुकायिकों में होते हैं। क्योंकि वायुका. यिकों के वैक्रियशरीर का सद्भाव कहो गया है। __अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्सइकाइया' हे भदन्त ! क्या कदाचित् दो तीन, चार या पांच वनस्पतिकायिक जीव एक होकर एक साधारण शरीर का बन्ध વિલક્ષણપણું બતાવેલ છે તે વાતને છોડીને બીજી તમામ સમુદુઘાત વિ. દ્વારોના કથનમાં સરખાપણું જ છે. 'वाउकाइयाणं एवं चेव' वायुयि मां स्यात्' विगरे वासना સંબંધમાં પ્રવિકાયિકાદિએનું જેવું કથન કર્યું છે. તે જ પ્રમાણે છે. પૂર્વ કથનથી વાયુકાયિકાદિકના કથનમાં જે બીજુ કાંઈ અંતર છે તે સમુદ્રઘાતના દ્વારને લઈને જ છે કેમ કે-વાયુકાયિક જીને ચાર સમુદ્રઘાત હોય છે. વૃશ્વિકાયિક જીવને આદિના ત્રણ જ સમુદ્રઘાત થાય છે. વાયુકાયિકોને વેદના સમુદુઘાત, કષાય સમુદ્રઘાત મારણાનિક સમુદ્રઘાત અને વૈક્રિય સમુદઘાત એ ચારસમુદુઘાત હોય છે. કેમ કે વાયુકાયિકને વકિય શરીરને સદ્ભાવ કહ્યો છે. वे गौतम भी प्रभुने से पूछे छे 3-'सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्सइकाइया०' भगवन् वा२ मे, रघु या२ अथवा पाय वन, શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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