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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०८सू०२ छद्मस्थानां द्विप्रदेशादिस्कंधज्ञाननि० १८३ छद्मस्थः खलु भदन्त ! मनुष्यः 'दुपएसियं खंधं कि जाणइ पासइ' द्विपदेशिकं प्रदेशद्वययुक्तं स्कन्धमवयविनं द्यणुकापरपर्यायम् किं जानाति पश्यति अथवा न जानाति न पश्यति इति प्रश्ना, भगवानाह-एवंचेव' पूर्ववदेव इहापि उत्तरं ज्ञेयम् अस्त्येकको जानाति न पश्यति अस्त्येकको न जानाति न वा पश्यतीत्यर्थः। 'एवं जाव असंखेज्नपरसियं' एवम्-द्विप्रदेशिकस्कन्धवदेव त्रिचतुःपञ्चपट्सप्ताष्टनवदशसंख्येयपदेशिकम्, असंख्येयप्रदेशिकं स्कन्धम् अस्त्येकको जानाति न पश्यति अस्त्येकको न जानाति वा न पश्पतीति । 'छउमस्थे णं भंते ! मणूसे' छद्मस्थः खलु जानाति न पश्यति' इस नियम के अनुसार जो छद्मस्थ मनुष्य श्रुतो. पयोग से रहित होते हैं वे सूक्ष्मादिक पदार्थो को न जानते हैं और न देखते हैं । 'छ उमत्थे णं भंते ! मणूसे.' __ अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि- हे भदन्त ! जो मनुष्य छद्मस्थ होता है वह क्या विप्रदेशिक स्कन्ध को व्यणुक अवयवीं को क्या जानता है और देखता है ? या उसे नहीं जानता है और नहीं देखता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'एवं चेव' पहिले के जैसे ही यहां उत्तर जानना चाहिये । अर्थात् कोई एक उसे जानता है पर देखता नहीं है तथा कोई एक उसे न जानता है और न देखता है । 'एवं जाव असंखेजपएसियं' द्विप्रदेशिक स्कन्ध के जैसा तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दश, और संख्यातप्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध को कोई एक जानता है पर उसे देखता આ નિયમ પ્રમાણે જે છશ્વાસ્થ માણસે શ્રુતજ્ઞાન વિનાને હોય છે, તે સૂક્રમાદિ પદાર્થોને જાણતા નથી અને દેખતે નથી. "उमत्थे णं भंते मणसे." तमस्यामा प्रमुन से पूछे छ। --હે ભગવન જે મનુષ્ય છદ્મસ્થ હોય છે, તે બે પ્રદેશવાળા કંધને-દ્વયશુક-બે પ્રદેશ અવયવવાળાને શું જાણે છે, અને દેખે છે? અથવા તેને જાણતા नथी मन हेमता नथी ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ --"एवं चेव" પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેને ઉત્તર અહિયાં સમજી લે, અર્થાત કેઈ એક તેને જાણે છે, પણ તેને દેખતો નથી. અને કેઈ એક તેને જાણતો પણ નથી भने मतो ५४ नथी. "एवं जाव अखंखेज्जपएसियं" द्विप्रशि: २४ घना विषयमा १९, २२, पांय, छ, सात, 8, नमन इस तथा सध्यात, અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા સ્કંધને કોઈ એક તેને જાણે છે. પરંતુ તેને દેખતા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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