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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८४०८ सू०२ गमनमाश्रित्य परतीथिकमतनिरूपणम्१६७ धेन त्रिकरणत्रियोगेन 'असंनया' असंयताः-संयमरहिताः 'जाव एगंतबालाया यावि भवह' यावत् एकान्तवालाश्च अपि भवथ । अत्र यावत्पदेन अविरया अप्पडिहय पञ्चक्खायपावकम्मा सकिरिया असंवुडा एगंददंडा एगंतमुत्ता' इत्यन्तस्य ग्रहणं भवति अविरता अप्रतिहताऽपत्याख्यातपापकर्माणः सक्रिया असंता एकान्तदण्डा एकान्तसुप्ताः। तत्र अविरताः अतीतकालिकपापाज्जुगुप्सापूर्वकम् भविष्यति च संवरपूर्वकमुपरताः, विरता-निवृत्ताः, न विरता अविरताः, अतएच अप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्माण:-तत्र प्रतिहत-वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशितम् , प्रत्याख्यातम्-पूर्वकृतातिचारनिन्दया भविष्यत्यकरणेन निरारण त्रियोग से संयम रहित है। इस कारण 'जाव एगं०' यावत् एकान्त बाल भी हैं । यहां यावत्पद से 'अविरया अप्पडिहयपच्चक्खाय पावकम्मा सकिरिया असंखुडा एगंतदंडा एगंतसुत्ता' यहां तक का पाठ गृहीत हुआ है। जो अतीतकालिक पारों से जुगुप्सा पूर्वक एवं भवि. यत्कालिन पापों से संवर पूर्वक उपरत होते हैं वे विरत हैं और जो ऐसे नहीं हैं वे अविरत हैं जो वर्तमानकालिक पापकर्म को स्थिति अनुभाग के हास से नष्ट कर देते हैं। तथा पूर्वकृत अतिचारों की निन्दा से एवं भविष्यत् में इन्हें नहीं करने के नियम से जो पापकर्म को नष्ट कर देते हैं, वे प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा जीव कहे गये हैं तथा जो ऐसे नहीं होते हैं अर्थात् इनसे जो भिन्न हैं वे अप्रतिहत अप्रस्याख्यात पापकर्माजीव हैं। कायिकी आदि क्रिया से युक्त जो होते अजो तिविह" 3 माय मा५ त्रय ४२९१ अनेत्र योगाथा सयम बिनाना छ।! मेथी "जाव एगंत." "पटी यावत् सन्त मास ५४ छ. माडियां याप.५६थी "अविरया अप्पडिहयपच्चरखायपावकम्मा सकिरिया असंवुडा एगंतदंडा एगंतसुत्ता" म सुधारा ५४ अडाण थयेछे. જેઓ ભૂતકાળના પાપોની નિંદાપૂર્વક અને ભવિષ્યકાળના પાપોથી સંવરપૂર્વક ઉપરત–નિવૃત્ત થાય છે, તેઓ વિસ્ત કહેવાય છે, અને તે પ્રકારના ન હોય તે અવિરત કહેવાય છે. જેઓ વર્તમાન કાળના પાપ કર્મોને સ્થિતિ અને અનુભાગના હાસથી નાશ કરે છે, તેમ જ પહેલાં કરેલા અતિચારોની નિંદાપૂર્વક તેમજ ભવિષ્યમાં તે પાપકર્મ ન કરવાના નિયમથી જેઓ પાપ કર્મને નાશ કરે છે, તે પ્રતિહત પ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મા જીવ કહેવાય છે. તથા તેવા જે હોતા નથી. અર્થાત પ્ર. પ્ર. પાપકર્મા જીવથી જે જુદા છે તે અપતિહત અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મા જીવ કહેવાય છે, કાયિકી વિગેરે ક્રિયાઓ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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