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________________ ११८ भगवतीस्त्रे च्छि ता मदुयं समणोवासयं एवं वयासी' उपागत्य मद्रुकं श्रमणोपासकम् एवंवक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषुस्ते अन्ययथिकाः, किमुक्तवन्तोऽन्ययूयिका मद्रुक ? तत्राह-एवं खलु' इत्यादि । 'एवं खलु मदुदुया' एवं खलु मद्रुक !' तब धम्मायरिए' तव धर्माचार्यः 'धम्मोवदेसए समणे णायपुत्ते' धर्मोपदेशकः श्रमणो ज्ञातपुत्र: 'पंच अस्थिकाए पनवेई पश्चप्रकारकान् अस्तिकायान् धर्मास्तिकायादीन पदार्थान प्रज्ञापयति 'जहा सत्तमे सए अन्नउस्थि उद्देसए' यथा सप्तमशते अन्ययूथिकोदेशके 'जाव से कहमेयं मद्य एवं ' यावत् तत् कथमेतत् मद्रुक ! एवम् हे मद्रुक ! तव धर्माचार्यः पश्चास्तिकायान् धर्मास्तिकायादीन् प्रज्ञापयति एतत् कथं घटते धर्मास्तिकायादीनामदृश्यत्वेन तत् परिज्ञानासंभवात् , इत्यादिकं सर्व सप्तमशत. कीयकृत्तान्तम् आगन्तव्यम् । 'तएणं से मदुए समणोवासए ततः खलु स मदुकः श्रमणोपासकः 'ते अन्नउत्थिए एवं वयासी' तानन्ययूथिकानेवमवादीत् अन्ययूथिकेन 'उवागच्छित्ता मदुयं समणोवासयं एवं वयासी' वहां पहुंच कर उन लोगोंने उस मद्रुक श्रावक से ऐसा कहा-'एवं खलु मद्या! तव धम्मायरिए, धम्मोवदेसए समणे णायपुत्ते पंच अस्थिकाये पनवेइ' हे मद्रुक ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्रने जो पांच प्रकार के धर्मास्तिकायादिक पदार्थ कहे हैं । 'जहा सत्तमे सए अन्नउस्थिउद्देसए' जैसा कि सप्तम शतक के अन्ययूथिकोद्देशक में प्रकट किया गया है। 'जाव से कहमेयं मद्या ! एवं' सो हे मद्रुक ! यह उनका कथन कैसे संगत माना जा सकता है ? क्योंकि धर्मास्तिकायादिक पांच अस्तिकायका कथन यहां पर सप्तरशतक में जैसा कहा गया है वैसा कह लेना चाहिये । 'तए णं से मददुए समणोवासए ते अन उत्थिए एवं वयासी' तब उस मद्रुक च्छित्ता मदुयं समणोवासय एवं वयासी" यi r७२ ते श्रा१४२ मा प्रमाणे ४यु "एवं खलु मदुया तवधम्मायरिए धम्मोवदेसए णायपुत्ते पंचअस्थि काए पन्नवेइ" भर तभ:२॥ यायाय मने धर्मापहेश श्रम शातपुत्रे पांय ना २ स्तिय विगेरे ५४ा हा छ. “जहा सत्तमसए अन्नउत्थिउद्देनए" सातभा शतना अन्ययूथि: देशामा रे प्रमाणे ४ामा मा०य छे. ते प्रभारी सभा "जाव से कहमेयं मद्या ! एवं" ते 3 મદ્રક તેઓનું આ પ્રમાણેનું કથન કેવી રીતે સંગત માની શકાય? કેમ કે ધર્માસ્તિકાય વિગેરે પાંચ અતિકાનું કથન અહિયાં સાતમાં શતકમાં જે પ્રમાણે छ, प्रभाग सघणु ४थन सभाबु "तर णं से मद्दुए समणोपासए ते अन्नउस्थिए एवं वयात्री" ते अन्य यूथिलामे न्यारे पूरित प्रारथी भई શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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