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________________ २०४ भगवतीसूत्रे धानानि चतुर्विशतिदण्ड केषु मनुष्याणामेव भवन्ति नान्येषाम् , तत्रापि संयतानामेव, सुपणिधानानां चारित्रपरिणतिरूपत्वादिति । ' से भंते ! सेवं भते! त्ति जाव विहरई' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति हे भदन्त ! उपध्याधारभ्य सुपणिधानपर्यन्तं यद् देवानुप्रियेगोपदिष्टं तत् सर्वमेवमेव सर्वतः सत्यमेवेति कथयित्वा भगवन्त वन्दित्वा नमस्कृत्य संयमेन तपसा आत्मानं भाव. यन् विहरतीति । 'तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः खलु समणो भगवान् महावीरः, 'जाव बहिया जणव पविहार विहरइ' यावद् बहिर्जनपदविहार विहरति यस्मिन् स्थाने भगवन्तं गौतममुपदिशन् आसीत् भगवान महावीरः तस्मात् स्थानात् निर्गत्य बहिर्जनपदविहारम् ततो राजगृहात् विभिन्नप्रदेशे विहार विहरति विहार कृतवानितिभावः ॥मु० २॥ प्रकार के सुप्रणिधान कहे गये हैं इन्हें ही 'मणस्प णिहाणे इत्यादि०' मनः सुपणिधान आदि नामों से इस सूत्र द्वारा प्रकट किया गया है। 'एवं चेव' इसी प्रकार है जैसा कि प्रश्न में पूछा गया है अर्थात् मनुष्यों को मनवचन, काय को आश्रित करके तीनों प्रकार के सुप्रणिधान होते हैं, वहां भी संयतों को ही होते हैं क्योंकि सुप्रणिधान चारित्रपरिणति रूप होते हैं । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' जाव विहरई' हे भदन्त ! जैसा आप देवानुप्रियने यह विषय कहा है वह ऐसा ही है-सर्वथा सत्य ही है । अर्थात् उपधि से लेकर सुप्रणिधान पर्यन्त जो आपने प्रतिपादित किया है वह सब इसी प्रकार से है ऐसा कहकर वे गौतम भगवान को वन्दना नमस्कार करके संथम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । 'तए णं समणे भगवं महावीरे जाव वहिया जणवयविहारं विहरई' इसके बाद श्रमण આવ્યા છે. તેઓને મનસુપ્રણિધાન વચન સુપ્રણિધાન અને કાય સુપ્રણિધાન એ ત્રણે પ્રણિધાન હોય છે. મનુષ્ય સિવાયના તેવીસ દંડકમાં સુપ્રણિધાર લેતા જ नयी १२६ मनुष्य सिवाय wwi यात्रिन। ममा २९ छ. “सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरई" समपन् सा५ देवानु प्रिये मा विषयमा જેવું પ્રતિપાદન કર્યું છે. તે તે પ્રમાણે જ છે. આપનું કથન સર્વથા સત્ય છે. અર્થાત ઉપધિથી આરંભીને સુપ્રણિધાન સુધીના વિષયમાં આ૫ જે પ્રતિપાદન કર્યું છે તે સઘળું તેજ પ્રમાણે છે. આ પ્રમાણે કહીને તે ગૌતમ સ્વામીએ ભગવાનને વંદના નમસ્કાર કરીને તપ અને સંયમથી આત્માને सावित ४२ता था पोतान स्थान विशमान गया. "तए णं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ" ते ५छी श्रमाय नावान શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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