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________________ २७६ भगवतीसूत्रे बेइंदियस्त पएसे' इत्ययं प्रथम भङ्गको न वक्तव्यः द्वीन्द्रियस्य प्रदेश इत्यस्यासंभवात् । तदसंभवश्व लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां यत्रैकप्रदेशस्तत्रासं. ख्यातानामेव तेषां सद्भावादिति । 'अजीया जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं' अजीवाः यथा दशमशतके तमायां तथैव निरवशेषम् दशमशतककथिततमाभिधानदिग्रवक्तव्यतामाश्रित्य सूत्रमुक्तं तथाऽत्राजीवविषयेऽपि उपरितनचरमान्तमाश्रित्य सर्व ज्ञातव्यम् तच्चेस्थम्-'जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता तं जहा रूबी अजीवाय अरूबी अजीवाय । जे रूबी अजीवा ते चउबिहा पन्नत्ता तं जहा खंधा खधदेसा खंधपएसा पामरणुगोग्गला । जे अरूवी अजीवा ते अणिदिय पएसाय बेह दियस्स पएसे' ऐसा जो प्रथम भंग कहा गया है वह यहां नहीं कहना चाहिये। क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव के प्रदेश की यहां संभावना नहीं है। संभावना नहीं होने का कारण यह है कि केवलि समुद्घात के समक्ष लोक व्यापक अवस्था को कर जितने भी और जीव हैं उन जीवों का जहां एक प्रदेश है वहां उसको असंख्यात ही प्रदेशों के सद्भाव है । 'अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं' जैसा दशवें शतक का पहला उद्देशा में तमा दिशा की वक्तव्यतामें सूत्र कहा गया है, उसी प्रकार से यहां अजीव के विषय में भी उपरितन चरमान्त को आश्रित करके सब कहलेना चाहिये । वह इस प्रकार से है-'जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-रूवी अजीवा य, अरूवी अजीवा य, 'जे रूवी अजीवा ते चउविहा पन्नत्ता, तं जहा-खंधा, खंधदेसा, खंधपएसा, परमाणुपोग्गला, 'जे अरूवी अजीवा, ते छव्विहा बेटियंस पपसे वापस 1 डामा माव्या छ. ते माडियां । ન જોઈએ કેમકે બે ઈન્દ્રિય વાળા ને એક પ્રદેશની અહિયાં સંભાવના હોતી નથી સંભાવના ન હોવાનું કારણ એ છે કે લેકવ્યાપક અવસ્થાવાળા જે બીજા જીવ છે. તે જન અહિં એક પ્રદેશ છે. અને ત્યાં તેઓના અસંખ્યાત પ્રદેશને સદૂભાવ છે. 'अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेस' वी शत शमi શતકમાં તમાદિશાના વર્ણનમાં સૂત્ર કહેવામાં આવ્યું છે. એ જ રીતે અહિયાં અજીવના વિષયમાં પણ ઉપરના ચરમાન્તને આશ્રય કરીને સઘળું કથન समन्यु नये. ते २१ मा प्रमाणे छे. 'जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता-तं जहा-रूपी अजीवा य अरूवि अजीवा य जे रूवि अजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता-त जहा-खंधा, खंघदेसा, खंधपएसा, परमाणुपोग्गला, जे अरूवि अजीवा, ते શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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