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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० ४ सू० १ परमाणुपुद्गलनिरूपणम् ८३ गौतमः पृच्छति-'अणंता णं भंते ! परमाणुपोग्गला जाव किं भवइ ? ' हे भदन्त ! अनन्ताः खलु परमाणुपुद्गलाः यावत्-एकतया संहन्यन्ते-संहता भवन्ति, एकत्वेन संहत्य किं स्वरूपं वस्तु भवति ? भगवानाह-'गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवई' हे गौतम ! अनन्ताः परमाणुपुद्गला एकतः संहत्य अनन्त प्रदेशिकः स्कन्धो भवति, 'से भिज्जमाणे दुहावि, तिहावि जाव दसहावि, संखिज्जहा, असंखिज्जहा, अणंतहावि कज्जइ' सोऽनन्तमदेशिकः स्कन्धो भिद्यमानो द्विधापि, त्रिधापि, यावत्-चतुर्धापि, पञ्चधापि, षोढापि, सप्तधापि, अष्टधापि, नवधापि, दशधापि, संख्येयधापि, असंख्येयधापि, अनन्तधापि क्रियते-भवति, तत्र 'दहा कज्जमाणे एगयो परमाणुपोग्गले, एगयो अगंतपएसिए खंधे जाव अहवा दो अणंतपए. ____ अब गौतम स्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'अणताणं भंते ! परमाणुपोग्गला जाव किं भवइ' हे भदन्त ! अनन्त परमाणुपुद्गल क्या आपस में मिलते हैं और उनके मिलाप से कौन सी वस्तु उत्पन्न होती है ? इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं-'गोयमा! अणंतपएसिए खंधे भवइ' हे गौतम ! अनन्त परमाणुपुद्गल आपस में मिलते हैं और उनके मेल से अनन्तप्रदेशोंवाला एक स्कन्ध उत्पन्न होता है। 'से भिन्जमाणे दुहावि, तिहा वि, जाव दसहावि, संखिज्जहा असंखिज्जहा, अणंतहा विकज्जइ' वह अनन्तप्रदेशी स्कन्ध जब विभक्त किया जाता है, तब इसके दो प्रकार भी, तीनप्रकार भी, चार प्रकार भी, पांच प्रकार भी, छह प्रकाररूप भी, सात प्रकार रूप भी, आठ प्रकार रूप भी, नौ प्रकाररूप भी, दशप्रकोर रूप भी, संख्यात प्रकार रूप भी, असंख्यातप्रकाररूप भी और अनन्तप्रकार रूप भी विभाग हो सकते हैं 'दुहा कज्जमाणे एगयो परमाणुपोग्गले, गौतम २वाभाना प्रश्न-“अणंताणं भंते ! परमाणुपोग्गला, जाव किं भवइ" હે ભગવન્! જ્યારે અનંત પરમાણુ પુદ્ગલે એક બીજા સાથે મળી જાય છે, ત્યારે તેમના સાગથી શું ઉત્પન્ન થાય છે ? ___ महावीर प्रभुना उत्तर-" गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवइ” गीतमा અનંત પરમાણુ પુલે એક બીજા સાથે એકત્રિત થાય ત્યારે તેમના સં थी मन प्र. मे ४ २४५ अस्पन्न थाय छे. “ से भिज्जमाणे दुहा चि, जाव दसहा वि, संखिज्जहा वि, असंखिज्जहा वि, अणंतहा वि कज्जइ " जयारे તે અનંત પ્રદેશ સ્કંધના વિભાગે કરવામાં આવે છે, ત્યારે બે અથવા ત્રણ અથવા ચાર અથવા પાંચ અથવા છ અથવા સાત અથવા આઠ અથવા નવ અથવા દસ અથવા સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત અથવા અનંત વિભાગો થઈ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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