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________________ ६१९ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० ४ सू० ८ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् अनंतेर्हि' हे गौतम! एको स्तिकायम देशः अनन्तैः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टो भवति, तथाहि - अनन्तैरनन्त जीवसम्बन्धिनाम् अनन्तानां प्रदेशानाम् तत्रैक धर्मास्तिका प्रदेशे पार्श्वतच दित्रयादौ विद्यमानत्वात् ४ गौतमः पृच्छति - ' केवएहिं पोग्गलत्थकायपरसेहिं पुढे १' हे भदन्त । एको धर्मास्तिकायम देशः कियदुभिः पुद्गलास्तिकायमदेशैः स्पृष्टो भवति ? भगवानाह - ' गोयमा ! अणंतेहिं' हे गौतम! एको धर्मास्तिकाय प्रदेशः अनन्तैः पुद्गलास्तिकायम देशैः स्पृष्टो भवति' अनन्तपुरसम्बन्धिनामनन्तानां प्रदेशानां तत्रैकधर्मास्तिकायमदेशे पार्श्वप्रदेशों द्वारा धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश स्पृष्ट होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा अनंतेहिं' हे गौतम! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश जीवास्तिकाय के अनन्तप्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसका तात्पर्य ऐसा है कि धर्मादिक द्रव्यों की तरह जीवद्रव्य एक नहीं है। वह तो अनन्त द्रव्यरूप है । इसलिये एक धर्मास्तिकाय के प्रदेश पर और उसके आस पास अनन्त जीवों के अनन्त प्रदेश विद्यमान रहते हैं - इसीलिये यहां ऐसा कहा गया है । ४ अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'केवइएहिं पोग्गलत्थकापसेहिं पुट्टे' हे भदन्त । एक धर्मास्तिकायप्रदेश पुलस्तिकाय के कितने प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'अणतेहिं' हे गौतम ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अनन्तपुरलास्तिकाय प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि अनन्तपुद्गलसंबंधी अनन्तमदेशों का धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश पर और उसके पास दिक महावीर प्रभुना उत्तर- " गोयमा ! अनंतेहि " हे गौतम! धर्मास्तिકાયના એક પ્રદેશ જીવાસ્તિકાયના અનતપ્રદેશે! વડે પૃષ્ટ થાય છે. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે ધર્માદિક દ્રવ્ચેની જેમ જીવ દ્રવ્ય એક નથી તે તા અનત દ્રવ્યરૂપ છે. તેથી એક ધર્માસ્તિકાયના પ્રદેશ પર અને તેની આસપાસ અનત જીવાના અનત પ્રદેશ વિદ્યમાન રહે છે. તેથી અહી” ઉપર મુજબનું કથન કરવામાં આવ્યુ છે. જા गौतम स्वामीनी प्रश्न- " केवहएहि पोग्गल त्थिका यपएसेहि पुट्ठे ?” डे ભગવન્ ! ધર્માસ્તિકાયના એક પ્રદેશ પુદ્ગલાસ્તિકાયના કેટલા પ્રદેશ વડે પૃષ્ટ થાય છે ? महावीर प्रलुना उत्तर- " अनंतेहि " हे गौतम! धर्मास्ति डायनो मे પ્રદેશ પુદ્ગલાસ્તિકાયના અનત પ્રદેશ વડે પૃષ્ટ થાય છે. કારણ કે મન'ત્ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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