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________________ २४४ भगवतीसूत्रे अतिविस्तृते, लोके, अस्ति सम्भवनि कश्चित् परमाणुपुद्गलमात्रोऽपि प्रदेशः, यत्र खलु अयं जीवो न जातो वा न उत्पन्नो वा, न मृतो बापि भवेत् ? अपि शब्दः संभावनायां प्रयुक्तः, भगवानाह-गोयमा ! णो इणढे समहे' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, नैतत्संभवति । गौतम स्तत्र कारणं पृच्छति-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ.-एयंसि णं एमहालयंसि लोगंसि, नस्थि के परमाणुपोग्गलमेत्ते विपएसे, जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा, न मए वापि ? ' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन-केन प्रकारेण, एवमुच्यते-एतस्मिन् खलु इयन्महालये लोके नास्ति कश्चित् परमाणुपुद्गलमात्रोऽपि प्रदेशो वर्तते, यत्र खलु अयं जीवो न जातो वा, न मृतो वापि भवेत् ? इति, भगवानाह-'गोयमा ! से जहा नामए-केहपुरिसे अयासयस एगं जीवे न जाए न मएवा वि' हे भदन्त ऐसे इस लोक मेंअति विस्तृत लोक में क्या कोई परमाणुपुद्गलमात्र प्रदेश भी ऐसा है:कि जहां पर यह जीव उत्पन्न न हुआ हो, और मरा भी न हो यहां "अपि" शब्द संभावना में प्रयुक्त हुआ है । उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम 'णो इणढे सम?' यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् ऐसी बात संभावित नहीं होती है । गौतम इस विषय में 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि इतने बड़े विशाल इस लोक में कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है कि जिसमें जीव उत्पन्न नहीं हुआ है, और मरा नहीं है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम! 'से जहा नामए के पुरिसे अयालयस्स एगं महं अयावयं करेज्जा' समझो-जैसे कोई एक पुरुष ऐसा विशाल एक अजाव्रज बनावे कि ભગવદ્ ! આ પ્રકારના આ અતિવિશાળકમાં-અતિવિસ્તૃતલેકમાં-એક પરમાણુ પુદ્ગલપમાણ કેઈ પ્રદેશ પણ શું એ છે કે જ્યાં આ જીવ ઉત્પન્ન थयो न डाय मन भ२६१ पाभ्यो न डाय? (मही "अपि" ५६ सावन सभां प्रयुत थयु छे.) महावीर प्रभुनी उत्त२-"गोयमा !” 3 गीतम! णो इणष्ट्रे सम२" એવી વાત સંભવી શકતી નથી આ પ્રકારના ઉત્તરનું કારણ જાણવા માટે गौतम स्वामी महावीर प्रभुने पूछे छे 3-" से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ". ભગવાન ! આ૫ શા કારણે એવું કહે છે કે આટલા બધા વિસ્તારવાળા લેકમાં કઈ પણ એ પ્રદેશ નથી કે જ્યાં જીવ ઉત્પન્ન થયો ન હોય અને મર્યો ન હોય ? तना उत्तर भारत महावीर प्रमुछे -“गोयमा ! " गौतम ! से जहा नोमए केइ पुरिसे अयासयस्स एगं महं अयावयं करेजा” धा। કઈ માણસ એક એવો વિશાળ વડે બનાવે છે કે જેમાં ૧૦૦ બકરીઓ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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