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________________ भगवती सूत्रे ३३२ तथा सन्तो ज्योतिषिकवैमानिका व्यवन्ति, नो असन्तश्च्यवन्ति इति प्रश्नः । भगवान् तत्र कारणमाह-' से णूणं गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीपण, सासए, लोए, बुइए, अणादीए अणवयग्गे जहा पंचमसए, जात्र जे लोक्कर से लोए, ' हे गाङ्गेय ! तत् नूनं निश्चयेन हि पश्यता = केवलज्ञानेनावलोकयता पुरुपादानीयेन पुरुषश्रेष्ठेन अर्हता पार्श्वनाथेन अयं लोकः शाश्वतः अनादिकः अनवदः यथा पञ्चमशतके नवमोद्देश के उक्तः प्रतिपादितस्तथैवात्रापि प्रतिपत्तव्यः, तदवधिमाह - ' जाव जे लोक्कर से लोए ' " यावत्- यो लोक्यते स लोक इति पर्यन्तं बोध्यम्, तथाचानेन तत् सिद्धान्तेनैव स्वमतं समर्पितम्, यतः पार्श्वना विद्यमान असुरकुमारादि वानव्यन्तरान्त उद्वर्तन करते हैं, अविद्यमान ये उद्वर्तन नहीं करते ? तथा विद्यमान ज्योतिषिक और वैमानिक चवते हैं अविद्यमान ज्योतिषिक और वैमानिक चबते नही हैं ? इन प्रश्नोंके उत्तर में भगवान् कारणका निर्देश करने के निमित्त कहते हैं'से णूणं गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं- सासए, लोए, बुइए, अणादीए, अणवयग्गे, जहा पंचमसए, जाव जे लोकह, से लोए' हे गांगेय ! केवलज्ञान से देखनेवाले, पुरुषश्रेष्ठ अर्हन्त पार्श्व are इस लोकको शाश्वत, अनादि और अनवदग्र - अन्त रहित कहा है सो यह विषय जैसा पंचमशतक में नौवें उद्देशक्रमें कहा गया हैउसी तरहसे यहाँ पर भी समझ लेना चाहिये। वहाँ पर लोक संबंधी विषय ' जाव जे लोक्कर से लोए । यावत् जो जाना जा सके वह लोक है - यहां तक कहा गया है । उस तरह प्रभुने इस उनके सिद्धान्तसे ही ત્તના કરે છે, અવિદ્યમાન નારક આદિ જીવા ઉત્તના કરતા નથી ? વિદ્ય. માન યેતિષિકો અને વૈમાનિકો ચ્યવે છે, અવિદ્યમાન યેાતિષિકો અને વૈમાનિકો ચવતા નથી ? भहावीर पलुना उत्तर- " से णूणं गंगेया ! पासेण अरहया पुरिसा क्षणीपणं सासए बुइए, अणादीए, अणवयग्गे, जहा पंचमसए जाव जे लोकइ से लोए " डे गांगेय ! ठेवणज्ञानथी हेमनारा, पुरुषश्रेष्ठ पार्श्वनाथ महते આ લેકને શાશ્વત, અનાદિ અને અનંત કહ્યો છે. આ વિષયનું પાંચમાં શતકના નવમાં ઉદ્દેશામાં જેવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે એવું કથન અહી’ अयु ४ त्यां संबंधी अथन " जाव जे लोक्कइ से लोए " 6698 જાણી શકાય તે લેાક છે,” અહી' સુધી કરવામાં આવ્યું છે, તે તે સમસ્ત કથન અહી' ગ્રહણ કરવું. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૮
SR No.006322
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages685
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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