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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श०९ उ०३१ सू०३ अवधिशानिनो लेश्यादिनिरूपणम् ६९१ निकभवग्रहणेभ्य, आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यो मनुष्यभवग्रहणेभ्य आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यो देवग्रहणेभ्य आत्मानं विसंयोजयति, या अपि च ताः इमाः नैरयिक-तियग्योनिक-मनुष्य-देवगति नाम्न्यश्चतस्रः उत्तरप्रकृतयः, तासां च खलु औपग्रहिकान् अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोमान् क्षपयति, अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोमान् क्षपयित्वा अप्रत्याख्यानकषायान् क्रोधमानमायालोभान क्षपयति, अपत्याख्यानकषायान् क्रोधमानमायालोभान क्षपयित्वा, प्रत्या नैरयिक भवों से अपने आपको दूर कर लेता है (अणंतेहिंतो तिरिक्ख जोणिय भवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोइए ) अनन्त तिथंच भवों से अपने आपको दूर कर लेता है, (अर्णतेहिंतो मणुस्स भवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ) अनन्त मनुष्य भवों से अपने आपको दूर कर लेता है (अणंतेहिंतो देवभवागणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ) और अनन्त देव भवों से अपने आप को विमुक्त कर लेता है। (जाओ वि य से इमाओ नेरइय तिरिक्व जोणिय मणुस्स देवगइ नामाओ चत्तारि उत्तर पयडीओ, तासिं च णं उवग्गहिए अणताणुबंधी कोहमाणमाया लोभे खवेइ ) तथा इसकी जो ये नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, और देवगति इस नामकी चार उत्तर प्रकृतियां हैं सो इन चार उत्तर प्रकृतियों के आधार भूत जो अनंतानुबंधी संबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ हैं इनका वह क्षय करता है। (अणंतानुबंधी कोहमाणमायालोमे खवित्ता अपञ्चखाणकसाए कोहमाणमायालोभे खवेद, अप વર્તમાન (વિદ્યમાન) અધ્યવસાય દ્વારા અનંત નરયિક માંથી પોતાની त २ ४३१ नामेछ, (अण तेहितो तिरिक्ख जोणिय भवगाहणेहितो अप्पाण विसजोएड) मनत तियय साथी ५ पोतानी न भुत शनाये छे, (अण तेहितो मणुस्स भवग्गहणेहितो अप्पाण विसजोएइ) मनत मनुष्य सवाथी वातानी जतने भुत नाणे छ, ( अण'तेहिं तो देवभवग्गहणेहितो अप्पाण विस'जोएइ) मने मनत वलवाथी ५ पोताना मामाने भुत ४श नामे छ ? (जाओ वि य से इमाओ नेरइयतिरिक्खजोणिय मणुस्स देवगहनामाओ चत्तारि उत्तरपयडीओ, तासि च णं उवाहिए अणताणुबधी कोह. माण माया लोभे खवेइ) तथा तनी मारे न२४ाति, तिय याति, मनुध्याति અને દેવગતિ નામની ચાર ઉત્તર પ્રકૃતિએ છે, તે ચાર ઉત્તર પ્રવૃતિઓના આધારભૂત જે અનંતાનુબંધી ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ છે તેને તે ક્ષય ४३ छ. ( अनंतानुबंधी कोहमाणमाया लोभे खवित्ता अपचक्खाणकसाए कोह श्री.भगवती सूत्र : ७
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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