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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ ० ३ सू०११ धर्मोपदेशनानिरूपणम् ८९३ वयासी' ततः खलु ते स्थविरा भगवन्तः तान् श्रमणोपासकान् एवमवदन् 'संयमे णं अज्जो अणण्हय फले' संयमः खलु आर्या ! अनास्रवफलः, आस्रवः नव कर्मोपादानम् , न आस्रवोऽनास्रवः नवकर्मानुपादानाम् एतदेव संयमस्य फलमित्यनास्रव फलकः संयमः 'तवोचोदाणफले' तपोव्यवदानफलम् , तपसो व्यवदानमेव पूर्व फलम्. वि. अव. भवनार्थकाद्धातोः, अथवा शोधनार्थक दैधातोर्व्यवदानमितिरूपं भवति, तदर्थस्तु पूर्वसंपादितकर्मवनगहनस्य लवनं छेदनम्-अथवा भवान्तर सम्पादित कर्मात्मकमलस्य संशोधनम् , एतदेव फलं तपस इति । 'तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं क्यासी' ततः खलु-संयम तपसोरनास्रव व्यवदानात्मकमेव फलमिति श्रवणानन्तरम्. ते श्रमणोपासकाः स्थवि पासकों ने ये दो प्रश्न किये-(तएणं ) श्रमणोपासकों के इस प्रकार से प्रश्न करने के बाद (ते थेरा भगवंतो) उन स्थविर भगवन्तों ने (ते समणो वासए) उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार से समझाया (संजमेणं अजो) हे आर्यो! संयम का फल ( अणण्हयफले ) अनास्रव होता है। नवीन कमों का आना इसका नाम आस्रव है । इस आस्रव का नहीं होना सो अनास्रव है। अर्थात् नवीन कर्मो का नहीं आना सो अनास्रव है। यही फल संयम का है । ( तवो वोदाणफले ) तप का फल व्यवदान है। इसका अर्थ ( पूर्व में संपादित कर्मरूप गहनवन का (लवन ) काटना, अथवा भवान्तर में सम्पादित कर्मरूप मल का संशोधन करना ऐसा होता है । यही तप का फल है। (तएणं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी ) संयम का फल केवल अनास्रव और तप का फल केवल त५ भने सयभना विषयमा त श्रमास मे प्रश्न पूछया. (तएण' ) त्यारे (ते थे। भगवतो ते समणोयासए एवं वयासी) ते स्थविर लगाये ते अभयापासन मा प्रमाणे पाय माया-(संजमेण अज्जो! अणण्हय फले) माय ! सयभनु ३५ मनासर डाय छे. मास मेटले नवीन કર્મોનું આગમન. તે આસ્રવ ન થવો તેનું નામ અનાસવ છે. એટલે કે નવીન કર્મોનું આગમન બંધ થવું તેનું નામ અનાસ્રવ છે. તે સંયમને કારણે બને छ. माटे सयभनु ॥ सनान डेस छे. ( तवो वोदाणफले) त५र्नु ३१ વ્યવદાન છે. પૂર્વે સંપાદિત કર્મરૂપ ગહન વનને કાપવું તેનું નામ વ્યવદાન છે. અથવા અન્ય ભામાં સંપાદિત કર્મરૂપ મલનું સંશોધન કરવું તેનું નામ व्यवहान छे. मारीत पूत न नाश३५ त५ ३ मतान्छे. (तएण ते समणोवासया थेरे भगवते एवं वयासी) सयमनुं ३॥ सनास भने શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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