SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श० १ ० ३ सू० २ काङ्क्षामोहनीय कर्मनिरूपणम् ५४९ गाहा - कड़ - चिय-उवचिय - उदीरिया य वेइया य निजिन्ना । आदितिए चउ भेया तियभेया पच्छिमा तिन्नि | सू० २ ॥ छाया - जीवाः खलु भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म अकार्षुः, दंत अकार्षुः । तद् भदन्त ! किं देशेन देशमकार्षुः, एतेनाभिलापेन दंडको भणितव्यः, यावद्वैमा निकानाम् । एवं 'कुर्वन्ति', अत्रापि दण्डको यावद्वैमानिकानाम् । एवं 'करिष्यन्ति' कांक्षामोहनीयकर्म जीवकृत होता है, यह बात पहले कही गई है । कर्म क्रिया द्वारा उत्पन्न होता है और क्रिया कालत्रय को विषय करने वाली होती है। इसलिये कर्मजनक उस कालत्रयविशिष्टक्रिया को दिखाते हुए अब सूत्रकार कहते हैं-" जीवाणं भंते " इत्यादि । मूलार्थ - ( जीवा णं भंते!) हे भदन्त ! जीवोंने (कंखामोहणिज्जं ) कांक्षामोहनीयकर्म (करिंसु ) क्या भूतकाल में किया है ? (हंता करिंसु ) हां किया है । (तं भंते किं देसेणं देस करिसु, एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियव्वो जाव वैमाणियाणं ) तो हे भदन्त ! भूतकालमें जिन जीवोंने कांक्षामोहनीयकर्म किया है सो क्या वह एकदेश से उनके एकदेश द्वारा उस समय किया गया है, इत्यादिरूप से पहिले की तरह ही यहां अभिलाप से दंडक कह लेना चाहिये। और यह दंडक यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिये। ( एवं करेति, एत्थवि दंडओ जाव वैमाणियाणं एवं करिस्संति, एत्थ वि दंडओ जाव वेमाणियाणं ) इसी तरह से કાંક્ષામાહનીય ક્રમ જીવકૃત છે. એ વાત પહેલાં કહેવાઈ ગઈ છે. કમક્રિયા દ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે. અને ક્રિયા ત્રણ કાળ વિષયક હાય છે. તેથી दुर्भ न भने अत्रय विषय डियासो हर्शावितां सूत्रअर उडे छे- “जीवाणं भंते ! " इत्यादि । (जीवाणं भंते !) डे पून्य ! वामे (कंखामोहणिजं) अंक्षामोहनीय दुर्भ (afig ) Q' qašine sda d ? ( gar sfig ) dı qasınni ska d. (à भंते किं देणं देस करिसु०, एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियव्वो जाव वैमाणियाणं) તા હૈ પૂજ્ય ! ભૂતકાળમાં જીવે જે કાંક્ષામેાહનીયકમ કર્યુ છે તે શું તેમના એક આત્મ પ્રદેશ વડે એક દેશથી તે સમયે કરાયું હાય છે, ઇત્યાદિ પહેલાંની જેમ જ અભિલાપ કરીને દડક કહેવાં જોઈ એ અને તે દડક વૈમાનિક દેવા सुधी उडेवां लेहये (एवं करेंति, एत्थ वि दंडओ जाव वैमाणियाणं एवं करिस्संति, पन्थदंडओ जाव वेमाणियाणं " ) मे४ प्रमाणे हे पून्य ! शुभ वर्त શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006315
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages879
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy