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________________ ११६ समवायाङ्गसत्रे भेदादनेकविधस्य शस्त्रस्य परिज्ञा=ज्ञेयपरिज्ञ या ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरणं प्रत्याख्यानं षड्जीवनिकायपरिरक्षणरूपं शस्त्रपरिक्षेतिनामकं प्रथमाध्ययनम् । 'लोग विजयों' लोकविजयः-रागद्वेषलक्षणस्य भावलोकस्य विजयस्त्यागः लोकविजयः, तत्प्रतिपादकं द्वितीयमध्ययनम् । 'सीओसणिज' शीतोष्णीयम्=शीता अनुकूलाः परीषहाः, उष्णाः प्रतिकूलाः परीषहाः, तानधिकृत्य कृतमध्ययनं शीतोष्णीयं तृतीयम् । 'सम्मत्तं' सम्यक्त्वम् तत्त्वश्रद्धानलक्षणम्, तन्निश्चलरूपेणासेव्यम् न तु परतीथिनामाडम्बरं वीक्ष्य दृष्टिविपर्यासो विधेय इति प्रतिपादकं चतुर्थम् । 'आवंति' श्रावन्ती लोकसारस्यापरं नाम, लोकसारो रत्नत्रयम् , अज्ञानमोहादि जीवोपमर्दन हेतुरूप शस्त्र है उसका ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करना इसका नाम 'शस्त्रपरिज्ञा' है अर्थात् यह अध्ययन षटूजीवनिकाय के परिरक्षण रूप है । और यह वहां का प्रथम अध्ययन है१ । 'लोकविजय' यह दूसरा अध्ययन हैं, इसका अर्थ रागद्वेषरूप भावलोक का त्याग करना है । इस राग द्वेष रूप भावलोक के परित्याग करने का प्रतिपादन करने वाला यह द्वितीय अध्ययन कहा गया है । 'शीतोष्णीय' नामका यह तृतीय अध्ययन है। इस अध्ययन द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि शीत-अनुकूल और उष्ण-प्रतिकूल रूप परीषह कौन २ हैं। इन्हीं शीत और उष्ण परीषहों को लेकर इस अध्ययन का निर्माण किया गया है ।३। 'सम्यक्त्व' त्तत्त्वश्रद्धान रूप चतुर्थ अध्ययन है। इस में यह कहा गया है कि सम्यक्त्व को दृढरूप से सेवन करना चाहिये-परतीर्थिकों के आडंबर को देखकर दृष्टि विपर्यास नहीं करना चाहिये४। 'आवन्ती' यह लोकसार का दूसरा नाम है। रत्नत्रय અનેક વિધ એવું જે છપમન હેતુરૂપ શસ્ત્ર છે તેનો જ્ઞ–પરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી ત્યાગ કરે તેનું નામ “શસ્ત્રપરિજ્ઞા” છે એટલે કે તે અધ્યયન છ જીવનિકાયના પરિરક્ષણ રૂપ છે. અને તે તેમાંનું પહેલું અધ્યયન છે. (૧) "लोक विजय" ये मी मध्ययन छ, तेन। अर्थ राग द्वेष३५ भावना ત્યાગ કર થાય છે. આ રાગદ્વેષ રૂ૫ ભાવલોકન પરિત્યાગ કરવાનું પ્રતિપાદન ४२ना२ मा भी मध्यन छ (२) "शीतोष्णीय" से नामनुं त्रीमध्ययन छे. या અધ્યયન દ્વારા તે વાતનું પ્રતિપાદન કરવામા આવ્યું છે કે શીત-અનુકૂલ અને ઉષ્ણ પ્રતિકૂલ પરીષહ કયા કયા છે. એ જ શીત અને ઉષ્ણ પરીષહોને અનુલક્ષીને આ मध्ययन २२यु छ. (3) "सम्यत्तव"-तत्त्वश्रद्धान३५ याथु अध्ययन छे. तमा કહેવામાં આવ્યું છે. કે સમ્યકત્વનું દઢતાથી સેવન કરવું જોઈએ.-પરતીથીઓના मारने नछन दृष्टि विपर्यास ४२वो ऽन्ये नही (४). "आवन्ती" ते साड શ્રી સમવાયાંગ સૂત્ર
SR No.006314
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1219
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size68 MB
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